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श्रमण सूक्त
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गोयरग्गपविट्ठस्स
निसेज्जा जस्स कप्पई। इमेरिसमणायार
आवज्जइ अबोहिय।। विवत्ती बभचेरस्स
पाणाण अवहे वहो। वणीमगपडिग्धाओ
पडिकोहो अगारिण।। अगुत्ती बभचेरस्स
इत्थीओ यावि सकण। कुसीलवड्ढणं ठाण दूरओ परिवज्जए।।
(दस ६ ५६, ५७.५८) भिक्षा के लिए प्रविष्ट जो मुनि गृहस्थ के घर में बैठता है, वह इस प्रकार के आगे कहे जाने वाले, अबोधि-कारक अनाचार को प्राप्त होता है। गृहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य-आचार का विनाश, प्राणियो का अवधकाल मे वध, भिक्षाचरी के अन्तराय, और घर वालो को क्रोध उत्पन्न होता है, ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है और स्त्री के प्रति भी शका उत्पन्न होती है। यह (गृहान्तर निषद्या) कुशीलवर्धक स्थान है इसलिए मुनि इसका दूर से वर्जन करे।
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