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श्रमण सूक्त
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तहेव अविणीयप्पा उववृज्झा हया गया।
दीसति दुहमेहता आभिओगमुवट्टिया । । तहेव अविणीयप्पा लोगसि नरनारिओ ।
दीसति दुहमेहता छाया विगलिते दिया ।। दडसत्यपरिजुण्णा असब्भवयणेहि य ।
कणा विवन्नछदा खुप्पिवासाए परिगया । । (दस ६ (२) ५, ७, ८)
जो औपवाह्य घोडे और हाथी अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं।
लोक में जो पुरुष और स्त्री अविनीत होते हैं, वे क्षतविक्षत या दुर्बल, इन्द्रिय-विकल, दण्ड और शस्त्र से जर्जर, असम्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत, करुण, परवश, भूख और प्यास से पीडित होकर दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते
हैं ।
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