Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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[१४ छक्खंडागमे वेयणाखंड
४, २, ७, ८.] 'सण्णि'णिद्देसो कदो । सासणादिपडिसे हफलं मिव्छाइट्ठि'णिद्देसो । अपञ्जत्तद्धाए उकस्साणुभागबंधो णत्थि, पजत्तद्धाए चेव बज्झदि त्ति जाणावणटुं 'सव्वाहि पञ्जत्तीहि पजत्तयदेण' इत्ति भणिदं । दसणोवजोगकाले उक्कस्साणुभागबंधो पत्थि णाणोवजोगकाले चेव होदि त्ति जाणावणटुं 'सागार णिद्देसो कदो। सुत्तावत्थाए उकस्साणुभागाबंधो णत्थि जाग्गंतस्सेव अत्थि त्ति जाणावणटुं 'जागार'णिदेसो कदो। मंद-मंदतर-मंदतमतिव्व-तिव्वतर-तिव्वतमभेदेण छसु संकिलेसट्टाणेसु छट्ठसंकिलेसट्टाणे सो उक्कस्साणुभागो वज्झदि त्ति जाणावणटुं 'उक्कस्ससंकिलिडेण'इत्ति भणिदं । ण च सो एयवियप्पो, आदेसुक्कस्सओघुक्कस्साणं दोण्णं पि गहणादो। 'णियमा सद्दो जेण मज्झदीवओ तेण णियमा पंचिंदियेण णियमा सण्णिमिच्छाइट्ठिणा णियमा सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदेण णियमा सागारुवजोगेण णियमा जागारेण णियमा उक्कस्ससंकिलिट्ठण इत्ति वत्तव्वं । एवंविहेण जीवेण बद्धल्लयमुक्कस्साणुभागं जस्स तं संतकम्ममात्थ तस्से ति वुत्तं होदि ।
तं संतकम्ममेदस्स होदि त्ति जाणावण मुत्तरसुत्तमागदं
तं एइंदियस्स वा बीइंदियस्स वा तीइंदियस्स वा चउरिदियस्स वा पंचिंदियस्स वा सण्णिस्स वा असण्णिस्स वा बादरस्स वा सुहुमस्स
'अन्यतर' पद दिया है । असंज्ञीका प्रतिषेध करनेके लिये 'संज्ञी' पदका निर्देश किया है। सासादन आदिका प्रतिषेध करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टि' पदका ग्रहण किया है । अपर्याप्त कालमें उत्कृष्ट अनुभगका बन्ध नहीं होता, किन्तु पर्याप्त काल में ही उसका बन्ध होता है: इस बातके ज्ञापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त' ऐसा कहा है। दर्शनोपयो कालमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, किन्तु ज्ञानोपयोगके कालमें ही होता है; यह बतलानेके लिये 'साकार' पदका निर्देश किया है। सुप्त अवस्थामें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, किन्तु जागृत अवस्थामें ही होता है; यह बतलानेके लिये 'जागार' पदका निर्देश किया है । मन्द, मन्दतर, मन्दतम, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतमके भेदसे छह संक्लेशस्थानोंमेंसे छठे संक्लेशस्थानमें वह उत्कृष्ट अनुभाग बँधता है; यह बतलानेके लिये 'उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त' ऐसा कहा गया है। वह एक प्रकारका नहीं है, क्योंकि यहाँ आदेश उत्कृष्ट और ओघ उत्कृष्ट इन दोनोंका हौ ग्रहण है। सूत्रमें आया हुआ 'णियमा' पद चूंकि मध्य दीपक है अतः “नियमसे पंचेन्द्रिय, नियमसे संज्ञी एवं मिथ्यादृष्टि, नियमसे सब पर्याप्तियोंद्वारा पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, नियमसे साकार उपयोगसे संयुक्त, नियमसे जागृत, तथा नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त” ऐसा कहना चाहिये । उपर्युक्त विशेषणोंसे संयुक्त जीवके द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट अनुभागका सत्व जिस जीवके होता है उसके ज्ञानावरणीयवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है यह उक्त कथनका अभिप्राय है
उसका सत्त्व इसके होता है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है
उसका सत्त्व एकेन्द्रिय, अथवा द्वीन्द्रिय, अथवा त्रीन्द्रिय, अथवा चतुरिन्द्रिय, अथवा पश्चेन्द्रिय, अथवा संज्ञी, अथवा असंज्ञी, अथवा बादर, अथवा सूक्ष्म, अथवा
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