Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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कारकसाकल्यवादः
२५
यथा तत्कालाभिमतं प्रमाणम्, अस्ति च पूर्वोत्तरकालभाविनां सर्वप्रमाणानां तदा नित्याभिमतं जनकमात्मादिकं कारणमिति । प्रात्मादिकारणे सत्यपि तेषामनुत्पत्तौ ततः कदाचनाप्युत्पत्तिर्न स्यादिति सकलं जगत् प्रमाणविकलमापद्यत । आत्मादौ तत्करणसमर्थे सत्यपि स्वयमेव तेषां यथाकालं भावे तत्कार्यताविरोध -तस्मिन् सत्यप्यभावात्-स्वयमेवान्यदा भावात् । न च स्वकालेपि तत्सद्भावे भावात्तत्कार्यता; गगनादिकार्यताप्रसक्तः। न च तस्यापि तत्प्रति कारणत्वस्येष्टे रदोषोयमिति वक्तव्यम् ; आत्माऽनात्मविभागाभावप्रसङ्गात् । यत्र प्रमितिः समवेता सोत्रात्मा नान्य इत्यप्यनालोचितवचनम् ; समवायाऽसिद्धौ समवेतत्वाऽसिद्ध: । यदा यत्र यथा यद्भवति तदा तत्र तथाऽऽत्मादेस्त
हो गया, यदि तुम कहो कि जब अपने काल में प्रमाण कार्य उत्पन्न होता है तब आत्मादि पदार्थ तो मौजूद ही रहते हैं अतः उनके सद्भाव में कार्य हुआ ऐसा माना जाता है तो ऐसी मान्यता में आकाशादिक को भी कारण मानना होगा, क्योंकि ये भी प्रमाण की उत्पत्ति के समय मौजूद ही रहते हैं, ये कहीं इधर उधर जाते नहीं और नष्ट भी होते नहीं हैं।
नैयायिक-आकाश को भी प्रमाण का कारण मानना (अर्थात् कारक साकल्य के अन्दर आकाश को भी लेना ) हमें इष्ट ही है, अतः हमारे ऊपर कोई दोष नहीं दे सकते।
जैन- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह से तो आत्मा एवं अनात्मा में जो भेद या विभाग है वह नष्ट हो जाता है, मतलब - जो प्रमाण का कारण है वह आत्मा है, और जो प्रमाण का कारण नहीं है वह अनात्मा है इस प्रकार का भेद नहीं रहेगा, क्योंकि आपने जड़ आत्मा को भी प्रमाण का कारण मान लिया है। जहां पर प्रमिति-ज्ञान-रहता है वह तो आत्मा है और जिसमें प्रमिति-ज्ञान-समवेत नहीं होता वह अाकाश है, ऐसा आत्मा और अनात्मा के विभाग का कारण तो मौजूद ही है ।
जैन-यह कथन भी बिना विचारे किया है, क्योंकि अभीतक जब समवाय नामक पदार्थ ही सिद्ध नहीं है तो फिर समवेत कैसे सिद्ध हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता।
नैयायिक-जो जब जहां जैसा होता है तब तहां वैसे ही आत्मादि कारण उस कार्य को करने में समर्थ होते हैं, इसलिए एक साथ सब प्रमारण उत्पन्न नहीं होते हैं।
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