Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
नहीं, ऐसा ही सभी मतवालों ने स्वीकार किया है इस प्रकार अन्त में कहकर प्राचार्य ने इस ज्ञानान्तरवेद्य ज्ञानवाद को समाप्त किया है ।
* ज्ञानान्तरवेद्य ज्ञानवाद का प्रकरण समाप्त *
ज्ञानान्तरवेद्य ज्ञान के खंडन का सारांश
नैयायिक ज्ञान को दूसरे ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष होना मानते हैं । उनका कहना है कि ज्ञान प्रमेय है, जो प्रमेय होता है वह दूसरे के द्वारा जाना जाता है, जैसे घट पट आदि प्रमेय होने से अन्य द्वारा जाने जाते हैं।
इस पर प्राचार्य का कहना है कि यदि ऐसा एकान्त रूप से माना जाय तो महेश्वर के ज्ञान तथा सुखसंवेदनादिक के साथ व्यभिचार आवेगा । अर्थात् महेश्वर का ज्ञान दूसरे ज्ञान से नहीं जाना जाता है, तथा सुखादि भी स्वत: प्रतिभासित होते रहते हैं । यदि कहा जाय कि महेश्वर के दो ज्ञान हैं एक ज्ञान से वह संसार-जगत को जानता है और दूसरे ज्ञान से पहिले ज्ञान को जानता है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि ऐसे समान जातीय दो ज्ञान एक द्रव्य में एक ही काल में संभव नहीं हैं । तथा-महेश्वर का वह दूसरा ज्ञान भी प्रत्यक्ष है कि अप्रत्यक्ष यदि प्रत्यक्ष है तो वह स्वतः प्रत्यक्ष है या पर से प्रत्यक्ष है ? यदि वह स्वत: प्रत्यक्ष है तो प्रथमज्ञान को भी स्वतः प्रत्यक्ष मानना चाहिये।
तथा – एक बात यह भी है कि यदि वे दो ज्ञान महेश्वर से पृथक् हैं तो उनका संबंध किस तरह से होता है ? यदि कहो-समवाय से होता है तो यह कहना उचित इसलिये नहीं है कि हम समवाय का खंडन करने वाले हैं । यदि हठाग्रह से उसे मानो तो भी जब वह सर्वत्र समानरूप से व्याप्त होकर रहता है तो यह बात फिर
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