Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 687
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे ततः "पृथिव्यप्त जोवायुभ्यो ब्राणरसनचक्षुःस्पर्शनेन्द्रियभावः" [ ] इति प्रत्याख्यातम् ; पृथिव्यादीनामन्योन्यमेकान्तेन द्रव्यान्तरत्वासिद्धः, अन्यथा जलादेमुक्ताफलादिपरिणामाभावप्रराक्तिरात्मादिवत् । न चैवम्, प्रत्यक्षादिविरोधात् । अथ मतम्-पाथिवं घ्राणं रूपादिषु सन्निहितेषु गन्धस्यवाभिव्यञ्जकत्वान्नागकणिकाविमर्दककरतलवत् ; तदप्यसङ्गतम् ; हेतोः सूर्यरश्मिभिरुदकसेकेन चानेकान्तात् । दृश्यते हि तैलाभ्यक्तस्याकिसी विषय में होता है तब हमको बिलकुल निकट के शब्द, रूप आदि का भी ज्ञान नहीं हो पाता है इसीसे उपयोगरूप भावेन्द्रिय सिद्ध होती है। मनके भी दो भेद हैं-द्रव्यमन और भावमन । भावार्थ - हृदय स्थान में अष्टपत्रयुक्त कमल के आकार का द्रव्यमन है। यह मनोवर्गणाओं से निर्मित है । नो इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जो विचार करने की शक्ति प्रकट होती है उसे भावमन कहा गया है । इस प्रकार इन्द्रियां और मनका यह अबाधित लक्षण समझना चाहिये । इन लक्षणों से नैयायिक आदि के द्वारा माने गये इन्द्रियों के लक्षण [एवं कारण] खण्डित हो जाते हैं। "पृथिव्यप्त जोवायुभ्यो घ्राणरसनचक्षुस्पर्शनेन्द्रियभावः" अर्थात् पृथिवी से घाण, जल से रसना, अग्नि से चक्षु और वायु से स्पर्शनेन्द्रिय उत्पन्न होती है, सो ऐसा कहना गलत हो जाता है, क्योंकि पृथिवी आदि पदार्थ एकान्त से भिन्न द्रव्य नहीं हैं । यदि पृथिवी जल आदि सर्वथा भिन्न २ द्रव्य होते तो जल से पृथिवीस्वरूप मोती कैसे उत्पन्न होते, अर्थात् नहीं होते, जैसे आत्मा सर्वथा पृथक् द्रव्य है तो वह अन्य किसी पृथिवी आदि से उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु जलसे मोती चन्द्रकान्त स्वरूप पृथिवी से जल, सूर्यकान्त मणि से ( पृथिवी से ) अग्नि उत्पन्न होती हुई देखी जाती है । अतः पृथिवी, जल आदि पदार्थों को पृथक द्रव्यरूप मानना प्रत्यक्ष से विरुद्ध पड़ता है । नैयायिक-अनुमान से सिद्ध होता है कि घ्राण प्रादि इन्द्रियां भिन्न २ द्रव्य से बनी हैं । देखो-घाणेन्द्रिय पृथिवी से बनी है, क्योंकि वह रूप आदि विषयों के निकट रहते हुए भी सिर्फ गन्ध को ही प्रकाशित करती है-जानती है । जैसे-नागचंपक पुष्प के बीचभाग को-कणिका को मर्दन करने वाले हाथों में गन्ध प्रकट होती है । जैन-यह कथन असंगत है, क्योंकि रूप आदि के रहते हए भी सिर्फ गंध को वह प्रकट करती है" यह हेतु सूर्य किरणों और जल सिंचन के साथ अनैकान्तिक होता है । तद्यथा-जैसे तेल का मालिस किया हुआ कोई पुरुष है, उसके शरीर पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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