Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 707
________________ भारतीय दर्शनोंका अति संक्षिप्त परिचय जैन दर्शन जैन दर्शन में सात तत्व माने हैं-जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जिसमें चैतन्य पाया जाता है वह जीव है, चेतनतासे रहित अजीव है (इसके पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, अाकाश, काल ) जीवके विकारी भावोंसे कर्मोका जीवके प्रदेशों में पाना प्रास्रव है, उन कर्मोंका जीव प्रदेशोंके साथ विशिष्ट प्रकारसे निश्चित अवधि तक संबद्ध होना बंध कहलाता है, परिणाम विशेषद्वारा उन कर्मोंका आना रुक जाना संवर है । पूर्व संचित कर्मोंका कुछ कुछ झड जाना निर्जरा है और संपूर्ण कर्मोका जीवसे पृथक होना मोक्ष कहलाता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल इसप्रकार छह मूलभूत द्रव्य हैं । उपर्युक्त साततत्वोंमें इन छह द्रव्यों का अंतर्भाव करें तो जीव तत्वमें जीव द्रव्य और अजीव तत्वमें पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल अंतनिहित होते हैं, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पांच तत्व जीव और अजीव स्वरूप पुदगल मय जड़ तत्व जो कर्म है इन दोनोंके सयोग से बनते हैं। चेतना स्वरूप जीव द्रव्य है, पुद्गल अर्थात् दृश्यमान जड़ द्रव्य । धर्म द्रव्य-जीव और पुद्गलके गमन शक्तिका सहायक अमूर्त द्रव्य । अधर्म द्रव्य-जीव और पदगलके स्थिति का हेतु । सम्पूर्ण द्रव्योंका अवगाहन करानेवाला अाकाश है और दिन, रात, वर्ष प्रादि समयोंका निमित्त भूत अमूर्त काल द्रव्य है। प्रमाण संख्या-मुख्य दो प्रमाण हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों प्रमाण ज्ञान स्वरूप ही है, ग्रात्माके जिस ज्ञानमें विशदपना [ स्पष्टता ] पाया जाता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । अविशदपना । अस्पष्टता ] जिसमें पाया जाता है वह परोक्ष प्रमाण है । इसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञानादि भेद हैं । __इन प्रमाणोंमें प्रामाण्य [ सत्यता ] अभ्यस्तदशामें स्वतः अनभ्यस्तदशा में परसे प्राया करती है। जगत में यावन्मात्र कार्य होते हैं उनके प्रमुख दो कारण हैं, निमित्त और उपादान, जो कार्योत्पत्ति में सहायक हो वह निमित्त कारण है और जो स्वयं कार्य रूप परिणमे वह उपादान कारण है जैसे घट रूप कार्य का निमित्त कारण कुंभकार, चक्र आदि है और उपादान कारण मिट्टी है। कारण से कार्य कथंचित् भिन्न है, और कथंचित अभिन्न भी है। प्रत्येक तत्व या द्रव्य अथवा पदार्थ अनेक अनेक [ अनंत ] गुण धर्मोको लिये हुए हैं और इन गुण धर्मोंका विवक्षानुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720