Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 709
________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे - जैन दर्शन में – जगत के विषयमें, ग्रात्मा के विषय में, कर्म या भाग्यके विषय में अर्थात् पुण्य पाप के विषय में बहुत बहुत अधिक सूक्ष्मसे सूक्ष्म विवेचन पाया जाता है, इन जगत आदिके विषयमें जितना गहन, सूक्ष्म, और विस्तृत कथन जैन ग्रन्थोंमें है उतना अन्यत्र अंशमात्र भी दिखायी नहीं देता । यदि जगत् या सृष्टि अर्थात् विश्वके विषय में अध्ययन करना होवे तो त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र, लोक विभाग आदि ग्रन्थ पठनीय हैं । आत्मा विषयक अध्ययन में परमात्मप्रकाश, प्रवचनसार समयसारादि ग्रन्थ उपयुक्त हैं । कर्म-पुण्य पाप आदिका गहन गंभीर विवेचन कर्मकांड (गोम्मटसार ) पंचसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थों में पाया जाता है । विश्व के संपूर्ण व्यवहार संबंध में एवं अध्यात्मसंबंध में अर्थात् लौकिक जीवन एवं धार्मिक जोवनका करणीय कृत्योंका इस दर्शन में पूर्ण एवं खोज पूर्ण कथन पाया जाता है । अस्तु । ६५८ बौद्ध दर्शन यह दर्शन क्षणिकवाद नाम से भी कहा जा सकता है क्योंकि प्रतिक्षरण प्रत्येक पदार्थ समूल चूल नष्ट होकर सर्वथा नया ही उत्पन्न होता है ऐसा बौद्ध ने माना है । इनके चार भेद हैं । वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक । वैभाषिक बाह्य और अभ्यंतर दोनों ही ( दृश्य जड़ पदार्थ और चेतन आत्मा ) पदार्थ प्रत्यक्ष ज्ञान गम्य हैं, वास्तविक हैं। ऐसा मानता है । सौत्रान्तिक बाह्य पदार्थों को मात्र अनुमान - गम्य मानता है । योगाचार तो बाह्य पदार्थ की सत्ता ही स्वीकार नहीं करता । मात्र विज्ञान तत्त्व को सत्य मानता है अतः इसे विज्ञानाद्वं तवादी कहते हैं । माध्यमिक बहिरंग पदार्थ मानता है और न अन्तरंग पदार्थ को ही । सर्वथा शून्य मात्र तत्त्व है ऐसा मानता है । इन सभी के यहाँ क्षणभंगवाद है । बौद्ध ने दो तत्त्व माने हैं । एक स्वलक्षण और दूसरा सामान्य लक्षण । सजातीय और विजातीय परमाणुत्रों से संबद्ध, प्रतिक्षण विनाशशील ऐसे जो निरंश परमाणु हैं उन्ही को स्वलक्षण कहते हैं, अथवा देश, काल और आकार से नियत वस्तु का जो स्वरूप है - प्रसाधारणता है वह स्वलक्षरण कहलाता है । सामान्य - एक कल्पनात्मक वस्तु है । सामान्य हो चाहे सदृश हो, दोनों ही वास्तविक पदार्थ नहीं है। प्रमाण - प्रविसंवादक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं उसके दो भेद हैं अर्थात् बौद्ध प्रमारण की संख्या दो मानते हैं, प्रत्यक्ष और अनुमान | कल्पना रहित ( निश्चय रहित ) प्रभ्रान्त ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । और व्याप्तिज्ञान से सम्बन्धित किसी धर्म के ज्ञान से किसी धर्मी के विषय जो परोक्ष ज्ञान होता है वह अनुमान प्रमाण कहलाता है । प्रमाण चाहे प्रत्यक्ष हो चाहे अनुमान हो सभी साकार रूप ज्ञान है । ज्ञान घट आदि वस्तुसे उत्पन्न होता है उसी के आकार को धारण करता है और उसी को जानता है। इसी को " तदुत्पत्ति, तदाकार, तदध्यवसाय" ऐसा कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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