Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय
तृतीय हेतु-सब कारणों से सब कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है । अपितु प्रतिनियत कारण से ही होती है, अतः कारण में कार्य पहले से ही मौजूद है।
चतुर्थ हेतु-समर्थ कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है असमर्थ से नहीं ।
पंचम हेतु-यह भी देखा जाता है कि जैसा कारण होता है । वैसा ही कार्य होता है । इस तरह इन हेतुओं से कारणका कार्य में सदा रहना सिद्ध होता है ।
सृष्टि क्रम-प्रकृति ( प्रधान ) और पुरुष के संसर्ग से जगत् की सृष्टि होती है। प्रकृति जड़ है । और पुरुष निष्क्रिय है। अतः दोनों का संयोग होने से ही सृष्टि होती है । इस सांख्य दर्शन में सबसे बड़ी आश्चर्य कारी बात तो यह है कि ये लोग बुद्धिको ( ज्ञान को ) जड़ मानते हैं, प्रात्मा चेतन तो है किन्तु ज्ञान शून्य है।
प्रमाण संख्या प्रत्यक्ष. अनुमान और आगम इस प्रकार तीन प्रमाण होते हैं "इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणम्” इन्द्रियों के व्यापार को सांख्य प्रमाण मानते हैं । प्रामाण्य वाद के विषय में इनका कहना है कि प्रमाण हो चाहे अप्रमाण हो दोनों में प्रामाण्य और अप्रामाण्य स्वतः ही पाता है । ईश्वर के विषय में इनमें मतभेद है । प्राचीन सांख्य निरीश्वर वादी थे अर्थात् एक नित्य सर्व शक्तिमान ईश्वर नामक कोई व्यक्ति को नहीं मानते थे, किन्तु अर्वाचीन सांख्य ने नास्तिकपने का लांछन दूर करने के लिए ईश्वर सत्ता को स्वीकार किया। यों तो चार्वाक और मोमांसक को छोड़कर सभी दार्शनिकों ने ईश्वर अर्थात् सर्वज्ञको स्वीकार किया है । किन्तु जैनेतर दार्शनिकों ने उसको सर्वशक्तिमान, संसारी जीवों के कार्योंका कर्ता आदि विकृत रूप माना और जैन ने उसको अनंत शक्तिमान, कृतकृत्य और सम्पूर्ण जगत का ज्ञाता दृष्टा माना है न कि कर्ता रूप अस्तु । सांख्य ने मुक्ति के विषयों में अपनी पृथक् ही मान्यता रखी है। मुक्ति अवस्था में मात्र नहीं अपितु संसार अवस्था में भी पुरुष ( प्रात्मा) प्रकृति से ( कर्मादि से ) सदा मुक्त ही है । बंध और मुक्ति भी प्रकृति के ही होते हैं । पुरुष तो निर्लेप ही रहता है । पुरुष और प्रकृति में भेद विज्ञान के होते ही पुरुष प्रकृति के संसर्गजन्य आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के दुःखों से छुट जाता है । प्रकृति ( कर्म ) एक नर्तकी के समान है, जो रंग स्थल में उपस्थित दर्शकोंके सामने अपनी कला को दिखा कर हट जाती है । वह एक बार पुरुष के द्वारा देखे जाने पर पुनः पुरुष के सामने नहीं आती। पुरुष भी उसको देख लेने पर उपेक्षा करने लगता है, इस प्रकार अब सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं रहता अतः मोक्ष हो जाता है, इसलिये प्रकृति और पुरुष के भेद विज्ञान को ही मोक्ष कहते हैं । मोक्ष अवस्था में मात्र एक चैतन्य धर्म रहता है । ज्ञानादिक तो प्रकृति के धर्म हैं। अत: मोक्ष में वैशेषिकादि के समान ही ज्ञानादिका अभाव सांख्यने भी स्वीकार किया है।
सर्वज्ञ को नहीं मानने वाले मीमांसक और चार्वाक हैं उनमें से यहाँ मीमांसक मत का संक्षिप्त विवरण दिया जाता है मोमांसक मत में वेद वाक्यों का अर्थ क्या होना चाहिये इस विषय को लेकर
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