Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
भेद हुए हैं जो "अग्निष्टोमेन यजेत्" इत्यादि वेद वाक्य का अर्थ भावना परक करते हैं । उन्हें भाट्ट कहते हैं । जो नियोग रूप करते हैं वे प्रभाकर और जो विधि रूप अर्थ करते हैं वे वेदान्ती कहलाते हैं । मीमांसक वेद को अपौरुषेय मानते हैं । जबकि ईश्वर कर्ता मानने वाले नैयायिकादि दार्शनिक वेद को ईश्वर कृत स्वीकार करते हैं । मीमांसक चूकि ईश्वर सत्ता को नहीं मानते अतः सृष्टि को अनादि निधन मानते हैं । इस जगत का न कोई कर्ता है और न कोई हर्ता है । शब्द को नित्य तथा सर्वव्यापक मानते हैं क्योंकि वह नित्य व्यापक ऐसे आकाश का गुण है । शब्द की अभिव्यक्ति तालु
आदि के द्वारा होती है न कि उत्पत्ति, जिस प्रकार दीपक घट पट आदि का मात्र प्रकाशक ( अभिव्यंजक ) है । उसी प्रकार तालु आदि का व्यापार मात्र शब्द को प्रगट करता है, न कि उत्पन्न करता है।
तत्त्व संख्या-मीमांसक के दो भेदों में से भाट्ट के यहाँ पदार्थ या तत्त्वों की संख्या ५ मानी हैं-द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य और अभाव । प्रभाकर पाठ पदार्थ मानता है द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या । द्रव्य नामा पदार्थ भाट्ट के यहाँ ग्यारह प्रकार का है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, प्रात्मा, मन, तम और शब्द । इसमें से तम को छोड़ कर १० भेद प्रभाकर स्वीकार करता है ।
प्रमाण संख्या-भाट्टकी प्रमाण संख्या छः है प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और प्रभाव । प्रभाकर प्रभाव को छोड़कर पाँच प्रमाण स्वीकार करता है।
प्रामाण्यवाद-सभी मीमांसक प्रमाणों में प्रामाण्य सर्वथा स्वतः ही रहता है ऐसा मानते हैं । अप्रामाण्य मात्र पर से ही पाता है । मीमांसक सर्वज्ञ को न मान कर सिर्फ धर्मज्ञ को मानते हैं अर्थात वेद के द्वारा धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान हो सकता है किन्तु इनका साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है । मुक्ति के विषय में भी मीमांसक इतना ही प्रतिपादन करते हैं कि वेद के द्वारा धर्म आदि का ज्ञान प्राप्त हो सकता है । किन्तु पात्मा में सर्वथा रागादि दोषों का अभाव होना अशक्य है तथा पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान होना भी अशक्य है । कोई-कोई मीमांसक दोषों का प्रभाव प्रात्मा में स्वीकार करके भी सर्वज्ञता को नहीं मानते हैं, इनके वेद या मीमांसाश्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में स्वर्ग का मार्ग ही विशेष रूपेण वरिणत है । यज्ञ, पूजा, जप, भक्ति आदि स्वर्ग सुख के लिये ही प्रतिपादित हैं "अग्निष्टोंमेन यजेत स्वर्गकामः" इत्यादि वाक्य इसी बात को पुष्ट करते हैं। इनका अन्तिम ध्येय स्वर्ग प्राप्ति तक सीमित है, अस्तु । इस प्रकार वेद को माननेवाले प्रमुख दर्शन नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक हैं, इनके प्रावांतर भेद और भी हैं जैसे वेदांती शब्दाद्वैतवादी, शांकरीय, भास्करीय इत्यादि, इन सबमें वेद प्रामाण्यकी मुख्यता है ।
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