Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 718
________________ शुद्धिपत्रम् ६६७ पृ० १४१ १६३ १७७ १८. १८१ १८६ १८८ १६८ 66R शुद्ध हाथादिका संवेद्यः तु तदभाव क्यों पाता? परत: इवांशूनां द्वायुर्वायो तद्गतार्थ कहा जीवसिद्धि १६६ १६६ २२७ २२८ २२८ २६३ २७३ २७४ ३०७ Kut me x x x प्रशुद्ध हाथमें रखी हुई वस्तुका सवेद्य तु तद्भाव क्यों नहीं पाता? षरत: इवाशूनां द्वायुवीयो तदनतार्थ आमोहित किया जीवसिद्ध या देखे जाते हैं ? यह कथन लादि तदग्राहक तदग्राहक नीति । मत होता प्रादिक है तेभ्यश्चैतम् तत्तस्यत्येपि अपनापन अदृष्टमें प्रायु बनावेगा स्यादृष्टा स्या चादृष्टस्यापि दात्मनोशक्तात् योस्तर गुणैश्य प्रोक्त्य तात्या ४ नीलादि तद् ग्राहक तद् ग्राहक निति । मन होना आदि कहे तेभ्यश्चैतन्यम् तत्तस्येत्यपि अदृष्ट में ग्राम्र बतावेगा स्यादृष्टस्या न चादृष्टस्यापि दात्मनोऽशक्तात् यो स्तयोर ३५० ३६. ३७८ ३७८ ३८८ ४०३ ४०४ ४.४ dur गुरगैरप तोक्त्य नान्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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