Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे कार्य कारण भाव-न्याय दर्शन में कार्य भिन्न है और कारण भिन्न है, यह सिद्धांत सांख्य से सर्वथा विपरीत है । अर्थात् सांख्य तो कारण कार्य में सर्वथा अभेद ही मानते हैं और नैयायिक सर्वथा भेद ही, अतः सांख्य सत्कार्य वादी और नैयायिकादि असत्यकार्यवादी नाम से प्रसिद्ध हुए।
कारण के तीन भेद हैं - (१) समवायी कारण (२) असमवायी कारण (३ ) निमित्त कारण
सामान्य से तो जो कार्य के पहले मौजूद हो तथा अन्यथा सिद्ध न हो वह कारण कहलाता है । समवाय सम्बन्ध से जिसमें कार्य की उत्पत्ति हो वह समवायी कारण कहलाता है, जैसे वस्त्र का समवायी कारण तन्तु (धागा ) है । कार्य के साथ अथवा कारण के साथ एक वस्तु में समवाय सम्बन्ध से रहते हुए जो कारण होता है उसे असमवायी कारण कहते हैं, जैसे तन्तुओं का आपस में सयोग हो जाना वस्त्र का असमवायी कारण कहलायेगा। समवायी कारण और असमवायी कारण से भिन्न जो कारण हो उसको निमित्त कारण समझना चाहिये । जैसे वस्त्र की उत्पत्ति में जुलाहा तुरी, वेम, शलाका, ये सब निमित्त कारण होते हैं ।
सृष्टि कर्तृत्व वाद-यह संसार ईश्वर के द्वारा निर्मित है, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष, शरीर प्रादि तमाम रचनायें ईश्वराधीन है, हां इतना जरूर है कि इन चीजों का उपादान तो परमाणु है, दो परमाणुओं से घणुक की उत्पत्ति होती है, तीन द्वयणुकों के संयोग से त्र्यणुक या त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है । चार त्रस रेणुओं के संयोग से चतुरेणु की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार प्रागे प्रागे जगत की रचना होती है । परमाणु स्वतः तो निष्क्रिय है, प्राणियों के अदृष्ट की अपेक्षा लेकर ईश्वर ही इन परमाणुओं की इस प्रकार की रचना करता जाता है । मतलब निष्क्रिय परमाणुओं में क्रिया प्रारम्भ कराना ईश्वरेच्छा के अधीन है, ईश्वर ही अपनी इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, और प्रयत्न शक्ति से जगत रचता है।
परमाणु का लक्षण-घर में छत के छेद से सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं तब उनमें जो छोटे-छोटे करण दृष्टि गोचर होते हैं वे ही त्रस रेणु हैं, और उनका छटवाँ भाग परमाणु कहलाता है परमाणु तथा द्वयणुक का परिमारण अणु होने से उनका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता और महत् परिणाम होने से त्रसरेणु प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
ईश्वर–ईश्वर सर्वशक्तिमान है जगत तथा जगत वासी प्रात्मायें सारे के सारे ही ईश्वर के अधीन हैं । स्वर्ग नरक आदि में जन्म दिलाना ईश्वर का कार्य है, वेद भी ईश्वर कृत है-ईश्वर ने
रचा है।
मुक्ति का मार्ग-जो पहले कहे गये प्रमाण प्रमेय आदि १६ पदार्थ या तत्त्व हैं उनका ज्ञान होने से मिथ्याज्ञान अर्थात् अविद्या का नाश होता है । मिथ्याज्ञान के नाश होने पर क्रमशः दोष, प्रवृत्ति, जन्म, और दुखों का नाश होता है । इस प्रकार इन मिथ्याज्ञान आदि का प्रभाव करने के
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