Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 710
________________ भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय ६५६ प्रामाण्य ( प्रमाण का फल ) प्रमाण रूप ही है । चार आर्य सत्य दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इनका बोध होना चाहिये । तथा पाँच स्कंध - रूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध इनकी जानकारी भी होनी चाहिये, क्योंकि इनके ज्ञान से मुक्ति का मार्ग मिलता है । मुक्ति के विषय में बौद्ध की विचित्र मान्यता है, चित्त अर्थात् आत्मा का निरोध होना मुक्ति है । दीपक बुझ जाने पर किसी दिशा विदिशा में नहीं जाकर मात्र समाप्त हो जाता है उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व समाप्त होना मुक्ति है । " प्रदीप निर्वारण वदात्म निर्वारणम्" नैयायिकादि ने तो मात्र आत्मा के गुण ज्ञान आदिका प्रभाव मुक्ति में स्वीकार किया है किन्तु बौद्ध ने मूल जो आत्म द्रव्य है उसका ही प्रभाव मुक्ति में माना है उनकी मान्यता है कि पदार्थ चाहे जड़ हो चाहे चेतन प्रतिक्षण नये-नये उत्पन्न होते हैं पूर्व चेतन नयी संतान को पैदा करते हुए नष्ट हो जाता है जब तक इस तरह से संतान परम्परा चलती है तब तक संसार और जहाँ वह रुक जाती है वहीं निर्वाण हो जाता है। सृष्टि के विषय में बौद्ध लोग मौन हैं। बुद्ध से किसी शिष्य ने इस जगत के विषय में प्रश्न किया तो उन्होंने कहा था कि सृष्टि कब बनी ? किसने बनायी ? अनादि की है क्या ? इत्यादि प्रश्न तो बेकार ही हैं ? जीवों का क्लेश, दुःख से कैसे छुटकारा हो इस विषय में सोचना चाहिये । प्रतीत्यसमुत्पाद, अन्यापोहवाद, क्षरण भंगवाद, आदि बौद्धों के विशिष्ट सिद्धान्त हैं । प्रतीत्य समुत्पाद का दूसरा नाम सापेक्ष कारणवाद भी है। अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति । शब्द या वाक्य मात्र अन्य अर्थ की व्यावृत्ति करते हैं, वस्तु को नहीं बताते । जैसे किसी ने 'घट" कहा सो घट शब्द घट को न बतलाकर श्रघट की व्यावृत्ति मात्र करता है इसी को अन्यापोह कहते हैं । प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षरण विशरणशील है यह क्षरण भंगवाद है । इत्यादि एकान्त कथन इस मत पाया जाता है । न्याय दर्शन न्याय दर्शन या नैयायिक मत में १६ पदार्थों का ( तत्वों का ) प्रतिपादन किया है, प्रमाण प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, श्रवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प पितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निगृह स्थान इन पदार्थों का विस्तृत वर्णन न्याय वार्तिक आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । प्रमाणप्रमेय, प्रमाता, प्रमिति इस प्रकार भी संक्षेप से तत्त्व माने जाते हैं, प्रमाण संख्या - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा, ग्रागम इस प्रकार नैयायिक ने चार प्रमाण माने हैं। प्रमाकरणं प्रमाणं, अर्थात् प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं, कारक साकल्य प्रमा का करण है अतः प्रमाण माना गया है । प्रामाण्यवाद — प्रमाण में प्रमाणता पर से ही आती है क्योंकि यदि प्रमारण में स्वतः ही प्रामाण्य होता तो यह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण है ऐसा संशय नहीं हो सकता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720