Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 708
________________ भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय ६५७ प्रतिपादन होता है इसीको अनेकान्त स्याद्वाद कहते हैं, वस्तु स्वयं अपने निजी स्वपरूपसे अनेक गुणधर्म युक्त पायी जाती है, उसका प्रकाशन स्याद्वाद ( कथंचितत्राद ) करता है । बहुत से विद्वान अनेकान्त और स्याद्वादका अर्थ न समझकर इनको विपरीत रूपसे मानते हैं, अर्थात् वस्तुके अनेक गुरण धर्मोंको निजी न मानना तथा स्याद्वाद को शायद शब्द से पुकारना, किन्तु यह गलत है. स्याद्वादका अर्थ शायद या संशयवाद नहीं है, अपितु किसी निश्चित एक दृष्टिकोण से ( जो कि उस विवक्षित वस्तुमें संभावित हो । वस्तु उस रूप है और अन्य दृष्टिकोण से अन्य स्वरूप है, स्याद्वाद कान्त का यहां विवेचन करे तो बहुत विस्तार होगा, जिज्ञासुत्रोंको तत्त्वार्थवार्त्तिक, श्लोकवार्त्तिक प्रादिमूल ग्रन्थ या स्याद्वाद अनेकान्त नामके लेख, निबंध, ट्रोक्ट देखने चाहिये । सृष्टि - यह संपूर्ण विश्व ( जगत ) अनादि निधन है अर्थात् इसकी प्रादि नहीं है और अंत भी नहीं है, स्वयं शाश्वत इसी रूप परिणमित है, समयानुसार परिणमन विचित्र २ होता रहता है, जगत रचना या परिवर्तनके लिये ईश्वर की जरूरत नहीं है । ये विश्वके पूर्वोक्त पुद्गल - जड़ तत्वके दो भेद हैं, अणु या परमाणु और स्कंध दृश्यमान, जितने भर भी पदार्थ हैं सब पुद्गल स्कंध स्वरूप हैं, चेतन जीव एवं धर्मादि द्रव्य अमूर्त - श्रदृश्य पदार्थ हैं । परमाणु उसे कहते हैं जिसका किसी प्रकार से भी विभाजन न हो, सबसे अंतिम हिस्सा जिसका अब हिस्सा हो नहीं सकता, यह परमाणु नेत्र गम्य एवं सूक्ष्मदर्शी दुर्बीन गम्य भी नहीं है । स्निग्धता एवं रूक्षता धर्म के कारण परमाणुत्रों का परस्पर संबंध होता है इन्हींको स्कंध कहते हैं । जैन दर्शन में सबका कर्ता हर्ता ईश्वर नहीं है, स्वयं प्रत्येक जीव अपने अपने कर्मोंका निर्माता एवं हर्त्ता है, ईश्वर भगवान या प्राप्त कृतकृत्य, ज्ञानमय, हो चुके हैं उन्हें जीवके भाग्य या सृष्टि से कोई प्रयोजन नहीं है । मुक्ति मार्ग - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप मुक्ति का मार्ग है, समीचीन तत्त्वोंका श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है, मोक्षके प्रयोजनभूत तत्त्वोंका समीचीन ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है, पापाचरण के साथ साथ संपूर्ण मन वचन आदि की क्रियाका निरोध करना सम्यक्चारित्र है, अथवा प्रारंभदशा में अशुभ या पापारूप क्रिया का ( हिंसा, झूठ आदिका एवं तीव्र राग द्वेषका ) त्याग करना सम्यक् चारित्र है । इन तीनोंको रत्नत्रय कहते हैं, इनसे जीवके विकारके कारण जो कर्म है उसका आना एवं बँधना रुक जाता है । मुक्ति- जीवका संपूर्ण कर्म और विकारी भावोंसे मुक्त होना मुक्ति कहलाती है, इसीको मोक्ष, निर्वाण आदि नामोंसे पुकारते हैं । मुक्तिमें अर्थात् आत्माके मुक्त अवस्था हो जानेपर वह शुद्ध बुद्ध, ज्ञाता द्रष्टा परमानंदमय रहता है, सदा इसी रूप रहता है, कभी भी पुनः कर्म युक्त नहीं होता । अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य से युक्त आत्माका अवस्थान होना, सर्वदा निराकुल होना ही मुक्ति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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