Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 686
________________ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ६३५ योगात्मकम् । तत्राऽऽवरणक्षयोपशमप्राप्तिरूपार्थग्रहणशक्तिले ब्धिः, तदभावे सतोप्यर्थस्याप्रकाशनात्, अन्यथातिप्रसङ्गः । उपयोगस्तु रूपादिविषय ग्रहणव्यापारः, विषयान्तरासक्त चेतसि सन्निहितस्यापि विषयस्याग्रहणात्तत्सिद्धिः । एवं मनोपि द्वधा द्रष्टव्यम् । पुद्गल द्रव्यात्मक हैं, इनकी कोई भिन्नजातियां नहीं हैं और न इनके परमाणु ही अलग अलग हैं। तथा दूसरी बात इन्द्रियों में भी इसी एक पृथिवी से ही यह घ्राणेन्द्रिय निर्मित है ऐसा नियम नहीं है सारी ही द्रव्येन्द्रियां एक पुद्गलद्रव्यरूप हैं, पृथिवी जल आदि नौ द्रव्यों का जो कथन यौग करते हैं उनका आगे चौथे परिच्छेद में निरसन होनेवाला है । पृथिवी आदि पदार्थ साक्षात् ही एक द्रव्यात्मक – स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णात्मक दिखायो दे रहे हैं । न ये भिन्न २ द्रव्य हैं और न ये भिन्न २ जाति वाले परमाणुओं से निष्पन्न हैं तया-न इन्द्रियों की रचना भो किसो एक निश्चित पृथिवी आदि से ही हुई है । अत: यौग का इन्द्रियों का कथन निर्दोष नहीं है। भावेन्द्रिय के दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से पदार्थ को ग्रहण करने की अर्थात् जानने की शक्ति का होना लब्धि कहलाती है। आवरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि समझना चाहिये । इसी लब्धि (क्षयोपशम) के अभाव में मौजूद पदार्थ का भी जानना नहीं होता है । यदि इस लब्धि के विना भी पदार्थ का जानना होता है ऐसा माना जावे तो चाहे जो पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने का अतिप्रसंग आता है। भावार्थ- सूक्ष्म अन्तरित आदि पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने में नहीं पाते हैं । अतः यह मानना चाहिये कि सूक्ष्मादि पदार्थों को ग्रहण न कर सकने के कारण उनमें उस जाति की लब्धि-शक्ति नहीं है । इसी का नाम योग्यता है । इसी योग्यता के कारण इन्द्रियों में विषय भेद है । तथा प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व का भेद है। इसी कारण अनेक पदार्थ जानने के योग्य होते हुए भी उनमें से हम अपने २ क्षयोपशम के अनुसार कुछ २ को ही जान सकते हैं । अन्य मत बौद्ध आदि के द्वारा माने गये तदुत्पत्ति तदाकार आदि का खण्डन या सन्निकर्षादिक का खण्डन करने में जैन इसी क्षयोपशमरूप लब्धि के द्वारा सफल होते हैं । रूपादि विषयों की तरफ आत्मा का उन्मुख होना उपयोगरूप भावेन्द्रिय है । यह उपयोग यदि अन्यत्र है तो निकटवर्ती पदार्थ भो जानने में नहीं पाते हैं । मतलब-जब हमारा उपयोग अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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