Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 704
________________ - परीक्षामुखसूत्र ६५३ प्रध्वंसाभावः-"यद् भावे नियमत: कार्यस्यविपत्तिः स प्रध्वंसः, मृद् द्रव्यानंतरोत्तर परिणामः" जिसके होनेपर नियमसे कार्यका नाश होता है वह प्रध्वंस कहलाता है, जैसे घट रूप कार्यका नाश करके कपाल बनता है, मिट्टी रूप द्रव्यका अनंतर परिणाम घट था उस घटका उत्तर परिणाम कपाल है, यह घट कार्यका प्रध्वंस है। ब्रह्माद्वैत-विश्वके संम्पूर्ण पदार्थ एक ब्रह्म स्वरूप हैं, अन्य कुछ भी नहीं है, जो कुछ घट, जीव आदि पदार्थ दिखाई देते हैं वे सब ब्रह्म की ही विवर्त हैं ऐसा ब्रह्माद्वैतवादी की मान्यता है । बाधाविरह-बाधा का नहीं होना। बहिर्व्याप्ति-जिस हेतुकी पक्ष और सपक्ष दोनों में व्याप्ति हो वह बहिर्व्याप्तिक हेतु कहलाता है। भूयोदर्शन-किसी वस्तुका बार बार देखा हुआ या जाना हुआ होना । भूतचैतन्यवाद-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार पदार्थोंसे प्रात्मा या चैतन्य उत्पन्न होता है ऐसा चार्वाकका कहना है, इसीके मतको भूतचैतन्यवाद कहते हैं । योगज धर्म-प्राणायाम, ध्यानादिके अभ्याससे प्रात्मामें ज्ञानादि गुणोंका अतिशय होना। युगपत वृत्ति-एक साथ होना या रहना । युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति-एक साथ अनेक ज्ञानोंका नहीं होना। रजत प्रत्यय-चांदीका प्रतिभास होना। लिंग-हेतुको लिंग कहते हैं चिह्न को भी लिंग कहते हैं। लिंगी-अनुमानको लिंगी कहते हैं, जिसमें चिह्न हो वह पदार्थ लिंगी कहलाता है। लघुवृत्ति-शीघ्रतासे होना। विवर्त-पर्यायको विवर्त कहते हैं। व्यंग्यव्यञ्जक-प्रगट करने योग्य पदार्थ व्यंग्य कहलाते हैं, और प्रगट करनेवाला व्यञ्जक कहलाता है। व्याप्य-व्यापक-व्यापकं तदतनिष्ठ व्याप्यं तनिष्ठ मेव च" अर्थात जो उस विवक्षित वस्तुमें है और अन्यत्र भी है वह व्यापक कहलाता है, और जो उसी एक विवक्षित में ही है वह व्याप्य कहा जाता है, जैसे वृक्ष यह व्यापक है और नीम, प्राम आदि व्याप्य हैं । वाच्य-वाचक-पदार्थ वाच्य हैं और शब्द वाचक कहलाते हैं, इन पदार्थ और शब्दों का जो संबंध है उसे वाच्च वाचक संबंध कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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