Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 684
________________ सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष तच्चोक्तप्रकारं प्रत्यक्षं मुख्यसांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारेण द्विप्रकारम् । तत्र सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारस्योत्पत्तिकारणस्वरूपे प्रकाशयति इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्वं देशतः सांव्यवहारिकम् ।। ५ ।। विशदं प्रत्यक्षमित्यनुवर्तते । तत्र समीचीनोऽबाधितः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो व्यवहारः संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । नन्वेवंभूतमनुमानमप्यत्र सम्भवतीति तदपि अब यहांपर सांव्यवहारिक प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण और विवेचन किया जाता है। प्रारम्भ में प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण और विवेचन किया गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, उन भेदों में से पहिले सांव्यवहारिक प्रत्यक्षप्रमाण को उत्पत्ति का कारण और उसके स्वरूप को बतलाने के लिए श्री माणिक्यनन्दो सूत्र रचना करते हैं सूत्र-इन्द्रियातिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ- इन्द्रियों और मन से होनेवाले एकदेश प्रत्यक्ष ( विशद ) ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। "विशदं प्रत्यक्षम'' इस सूत्र का संदर्भ चला आ रहा है । “सं" का अर्थ है समीचीन अबाधित, इस तरह अबाधित प्रवृत्ति और निवृत्तिलक्षणवाला जो व्यवहार है उसका नाम संव्यवहार है यही संव्यवहार है प्रयोजन जिसका वह सांव्यवहारिक है। शंका-इस प्रकार का लक्षण तो अनुमान में भी संभावित है अत: वह भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जावेगा ? समाधान-इस शंका का निरसन करने के लिए ही सूत्रकार ने "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः" ऐसा कहा है, मतलब-जो ज्ञान इन्द्रियों और मन से होता है, [ हेतु से नहीं होता ] वह एक देश सांव्यवहारिक प्रत्यक्षप्रमाण है । अन्य हेतु आदि से होनेवाले अनुमानादि को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं कहा गया है । इस तरह एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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