Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 682
________________ ६३१ चक्षुःसन्निकर्षवादः नैयायिक-दूसरी एक किरणरूप चक्षु है वह जाकर पदार्थ का स्पर्श करती है । जैन-यह किरण चक्षु ही अभी प्रसिद्ध है तो उससे पदार्थ का छूना वगैरह तो दूर ही रहा हम तो पहिले आपसे यही पूछते हैं कि-रश्मिचक्षु को आप किस प्रमाण से सिद्ध करते हैं क्या इसी अनुमान से या किसी दूसरे अनुमान से ? यदि इसी अनुमान से कहो तो अन्योन्याश्रय है । और दूसरे अनुमान से कहो तो अनवस्था दोष आता है । तथा-प्रांखों से किरणें बाहर जाकर पदार्थ को जानती है तो आंख में अंजन लगाना आदि व्यर्थ है। किरणें जब आंख से बाहर निकलती हैं तब प्रत्यक्ष दिखनी चाहिये, रूप और स्पर्श तो उनमें है ही ? तुम कहो कि उनका रूप अप्रकट है, सो क्या ऐसा तेजोद्रव्य आपको कहीं दिखाई देता है कि जिसमें रूप प्रगट न हो ? आपका कहना है कि बिल्ली आदि जानवरों की आंखों में तो किरणें स्पष्ट दिखाई देती हैं, अतः मनुष्यादि के नेत्रों में भी उनकी कल्पना करी जाती है, सो यह सब कथन गलत है, क्योंकि ऐसा अन्य एक जगह देखा गया स्वभाव सब जगह लागू करोगे तो महान् दोष पायेंगे । फिर तो कोई कहेगा कि रात्रि में सूर्य की किरणें होते हुए भी उपलब्ध नहीं होती हैं मतलब अप्रकट रहती हैं । जैसे कि मनुष्योंके नेत्रों में किरणें अप्रकट रहती हैं । सो ऐसी मान्यता को भी स्वीकार करना पड़ेगा। प्रत्यक्ष बाधा दोनों पक्षों में है, अर्थात् सूर्य किरणें जैसे रात में नहीं दिखती वैसे ही नेत्र किरणें भी तो नहीं दिखती, फिर सूर्य किरणें तो न मानना और नेत्र किरणें मानना यह तो कोरा पक्षपात है। आपके यहां इन्द्रियां पृथक् पृथक् पृथिवी आदि से उत्पन्न हुईं मानी गई हैं सो यह बात भी गलत है। चक्षु तेजोद्रव्य ( अग्नि ) से बनती है यह बात आप रूपप्रकाशकत्व हेतु से सिद्ध करते हैं, किन्तु यह हेतु व्यभिचारी है । अर्थात्-चक्षु तेजस है क्योंकि वह रूपादि गुणों में से सिर्फ रूप को ही प्रकाशित करती है, जैसा कि दीपक, सो यह अनुमान सदोष है। क्योंकि हेतु अनैकान्तिक दोष वाला है माणिक्यादि रत्नों द्वारा यह हेतु व्यभिचरित होता है वह इस प्रकार से कि वे रत्न रूप प्रकाशक तो हैं पर तेजोद्रव्य नहीं हैं पृथ्वीद्रव्य हैं । तथा-चक्षु यदि छूकर पदार्थको जाने, तो उसी पदार्थ में रहे हुए रसादिकों को क्यों नहीं जानें ? क्योंकि सब रसादिकों को उसने छु तो लिया ही है । यदि चक्षु छकर ही रूपको [ पदार्थ को ] जानती है तो स्फटिकमणि की डिब्बी के भीतर रखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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