Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 690
________________ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ६३६ गुणत्वस्याग्र प्रतिषेधात् । तत्श्वे दमप्ययुक्तम्-"शब्दः स्वस्मानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते सामान्यविशेषवत्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वे सत्यनारम विशेषगुणत्वाद्वा रूपादिवत्" [ ] इति । ततो नेन्द्रियाणां प्रतिनियतभूतकार्यत्वं व्यवतिष्ठते प्रमाणाभावात् । अपने ही समान जातिरूप आकाश से बनी हुई जो कर्णेन्द्रिय है उसके द्वारा उसका ग्रहण होता है, बाह्य एक ही इन्द्रिय के द्वारा उसका ग्रहण होने से तथा प्रात्मा का गुण नहीं होने से भी उसका अपनी सजातीय इन्द्रिय से ग्रहण होता है ऐसा सिद्ध होता है । कर्णेन्द्रिय आकाश से बनी है, अतः आकाश के विशेष गुण स्वरूप शब्द को वह जानती है । अथवा शब्द आकाश का गुण है अतः अाकाश निर्मित कर्णेन्द्रिय द्वारा उसका ग्रहण होता है । ऐसा नैयायिकादि का कहना है, किन्तु यह सब व्यावर्णन और इसकी पुष्टि के निमित्त दिये गये अनुमान सब असिद्ध हैं ऐसा पूर्वोक्तरूप से सिद्ध हो जाता है ? इस प्रकार नैयायिकों का यह निश्चितपृथिवी आदि से निश्चित-घाणेन्द्रियादि की उत्पत्ति होती है ऐसा जो प्रतिनियत कार्यवाद है वह युक्तिशून्य होने से या युक्तिसंगत न हो सकने से निरस्त हो जाता है । जैनोंने प्रतिनियत एक पुद्गल से सभी द्रव्येन्द्रियों की रचना होती है ऐसा जो माना है वही युक्तिसंगत निर्दोष है । द्रव्येन्द्रियों की रचना में भावेन्द्रियां सहायभूत हैं भावेन्द्रियों के अभाव में द्रव्येन्द्रियां स्वकार्य करने में असमर्थ रहती हैं । अत: ये भावेन्द्रियां ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशमरूप सिद्ध होती हैं। इस तरह इन इन्द्रियों एवं मन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है और एकदेश पदार्थ को स्पष्ट जानता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ऐसा प्रेक्षादक्षवादी और प्रतिवादियों को स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष का वर्णन समाप्त हुआ। उपसंहार-परीक्षामुखनामा ग्रन्थ की रचना श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने ईसाकी आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की थी जिसमें कुल सूत्र संख्या २१२ हैं [ प्रकारान्तर से २०७ सूत्र भी गिने जाते हैं ] तदनंतर दसवीं शताब्दी में श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने उन सूत्रों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण दीर्घकाय टीका रची। अब वर्तमानमें बीसवीं शताब्दी में उस दीर्घकाय संस्कृत टीका का राष्ट्रभाषानुवाद [हिन्दी] करीब पच्चीस हजार श्लोक प्रमाणमें मैंने [ आर्यिका जिनमतिने ] किया, संपूर्ण भाषानुवादका प्रकाशन एक खण्ड में होना अशक्य था अतः तीन खडमें विभाजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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