Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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चक्षुसन्निकर्षवादका पूर्वपक्ष प्रमाण का विवेचन करते समय सन्निकर्ष ही प्रमाण है ऐसा नैयायिकों ने सिद्ध किया था, उस सन्निकर्षप्रमाणवाद में कोई दूषण उपस्थित करे कि सन्निकर्ष अर्थात् छूकर ही ज्ञान होता है तो चक्षु के द्वारा भी छूकर ज्ञान होना चाहिये ? किन्तु ऐसा होता नहीं है ? सो अब यहां सप्रमाण चक्षु को भी प्राप्यकारी सिद्ध करके बताते हैं- “प्राप्तार्थ प्रकाशकं चक्षुः बाह्येन्द्रियत्वात् स्पर्शनेन्द्रियवत्" अर्थात् चक्षु पदार्थों को स्पर्श करके ही रूप का ज्ञान कराती है क्योंकि वह भी एक बाह्य इन्द्रिय है, जैसे कि स्पर्शन इन्द्रिय बाह्य इन्द्रिय है, अतः वह छूकर ही स्पर्शका ज्ञान कराती है । हमारे यहां नियम है कि “इन्द्रियाणां वस्तु प्राप्यप्रकाशकारित्वम्" स्पर्शन आदि पांचों ही नहीं किन्तु मनरूप इन्द्रिय भी वस्तु को सन्निकर्ष करके अर्थात् अपने २ विषय के साथ भिड़करके ही ज्ञान पैदा कराती हैं, यदि चक्षु पदार्थों को विना स्पर्श किये ही जानने वाली होती तो भित्ति [दिवाल] आदि से व्यवहित पदार्थों को भी ग्रहण कर लेती ? क्योंकि जानने योग्य वस्तु को छूने की तो उसे आवश्यकता रही नहीं। "अप्राप्यकारित्वे तु न कुड्यादेरावरणसामर्थ्य मस्ति' अर्थात् चक्षु अप्राप्यकारी है तो दिवाल आदिक उसका आवरण कर नहीं सकती। अब यहां पर यह प्रश्न होता है कि चक्षु यदि पदार्थ को छूकर जानती है तो छूने के लिए वह बाहर पदार्थ के पास कहां जाती है ? सो उसका उत्तर यह है कि यह दिखाई देनेवाली चक्षु छूकर नहीं जानती किन्तु इसी के भीतर रश्मि [किरणें] रहती हैं-वे पदार्थ को छूती हैं, वास्तविक चक्षु तो वही है, यह गोलक तो मात्र उसका अधिष्ठान है। कोई कहे कि गोलक चक्षु में रश्मिचक्षु है तो वह उपलब्ध क्यों नहीं होती ? तो उसका कारण यह बतलाया है कि उस रश्मिचक्षु का तेज अनुभूत रहता है, देखिये-किरणे चार प्रकार की होती हैं "चतुविधं च तेजो भवति" उद्भूत रूपस्पर्श यथा आदित्य रश्मिः, उद्भूतरूपं अनुभूतस्पर्श यथा प्रदीपरश्मिः, उभयं च प्रत्यक्षम, रूपस्य उद्भूतत्वात् । उद्भूतस्पर्श अनुभूतरूपं यथा-वारि स्थितं तेजः अनुभूतरूपस्पर्श यथा नायन तेजः” (न्यायवार्तिक अध्याय ३ सूत्र ३६), तेज चार प्रकार का है प्रथम तो वह है कि जिसमें रूप और स्पर्श दोनों प्रकट रहते हैं जैसे सूर्य किरणें, दूसरा वह है कि जिसमें रूप प्रकट हो और स्पर्श अप्रकट हो जैसे दीपक की किरणें, तीसरा वह है कि जिसमें स्पर्शगुण तो प्रकट हो और रूपगुण
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