Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 679
________________ ६२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ध्याऽत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वलक्षणयाऽनिष्टस्य प्राप्यकारित्वलक्षणव्याप्याभावस्यापादानमात्रमेवानेन विधीयते, इत्युक्तदोषाप्रसङ्गः । नाप्यनै कान्तिको विरुद्धो वा; विपक्षस्यैकदेशे तव वाऽस्याऽप्रवृत्तेः । न च स्पर्शनेन प्राप्यकारिणाप्यत्यासन्नस्याभ्यन्तरशरीरावयवस्पर्शस्याप्रकाशनादनेकान्तः; अस्य तत्कारणत्वेन तदविषयत्वात् । स्वकारणव्यतिरिक्तो हि स्पर्शादि: स्पर्शनादीन्द्रियाणां विषयः; तत्रैवाभिमुख्यसम्भवेनामीषां प्रकाशनयोग्यतोपपत्तेः । कथमन्यथैकशरीरप्रदेशान्त रगतस्पर्शनेन तत्प्रदे किया है उसे आपको प्रसंग साधनरूप समझना चाहिये, प्रसंगसाधन का लक्षण "परेष्टथाऽनिष्टापादनं प्रसंगसाधनम्" अर्थात् परके इष्ट को लेकर उसी के द्वारा परका अनिष्ट सिद्ध करना। प्राप्यकारित्व और अत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व ये दोनों ही कर्ण आदि इन्द्रियों में पाये जाते हैं अर्थात् कर्ण प्रादि चार इन्द्रियां वस्तु को प्राप्त करके जानती हैं और प्रत्यासन्नार्थ को भी जानती हैं, इन दोनोंका व्याप्यव्यापकभाव कर्णादि इन्द्रियों में देखा जाता है । जब चक्षु की बात आई तो नैयायिक ने प्राप्तार्थप्रकाशकतारूप जो व्याप्य है उसे तो चक्षु में माना पर इसका व्यापक जो प्रत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व है उसे नहीं माना इसलिये प्राचार्य ने उनसे कहा कि यदि चक्ष में अत्यासन्नार्थप्रकाशनता मानना अनिष्ट है तो प्राप्तार्थप्रकाशकत्व वहां नहीं रह सकेगा, क्योंकि व्यापक के अभाव में उसके व्याप्य धर्म का भी अभाव देखा जाता है, जैसा वृक्षत्व के अभाव में वटत्व का भी प्रभाव हो जाता है जब चक्षु में अत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व (प्रतिनिकटवर्ती नेत्रांजनादि को प्रकाशित करना ) नहीं पाया जाता है तब प्राप्तार्थप्रकाशनत्व रूप व्याप्य कैसे पाया जा सकता है ? इसप्रकार प्रसंग साधनद्वारा चक्षु में अप्राप्यकारित्व सिद्ध किया गया है। नैयायिक-प्राप्यकारी स्पर्शनेन्द्रिय भी प्रतिनिकटवर्ती शरीरके अभ्यन्तर के अवयवोंके स्पर्शका प्रकाशन नहीं कर पाती, अतः जो प्राप्यकारी हो वह अति निकट के पदार्थ का प्रकाशन करता ही है ऐसा कहना अनैकान्तिक होता है । जैन-शरीरके अभ्यंतरवर्ती अवयव स्पर्शनेन्द्रिय कारण है अतः उसका प्रकाशन नहीं करती, स्पर्शनादि इन्द्रियोंका स्पर्शादि जो विषय है वह उनके स्वकारणों से पृथक होता है, तभी तो उन विषयों की तरफ अभिमुख होकर इन्द्रियां उनका प्रकाशन किया करतो हैं । यदि ऐसी बात नहीं होती तो शरोरके एक प्रदेश में हाने वालो स्पर्शनेन्द्रियद्वारा उसो शरीरके अन्य प्रदेश का स्पर्श किस प्रकार प्रकाशित किया जा सकता था? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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