Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
चक्षुःसन्निकर्षवादः रूपोष्णस्पर्शयोरनुदभूतिप्रतीतिरस्तीत्यसम्यक् ; उभयानुभूतेस्तत्राप्यप्रतिपत्तेः । दृष्टानुसारेण चाहटार्थकल्पना, अन्यथातिप्रसङ्गात् । तथाहि-रात्रौ दिनकरकरा: सन्तोपि नोपलभ्यन्तेऽनुभूतरूपस्पर्शत्वाच्चक्षुरश्मिवत् । प्रयोगश्च-मार्जारादीनां चक्षुषा रूपदर्शनं बाह्यालोकपूर्वकम् तत्त्वाद्दिवाऽस्मदादीनां तद्दर्शनवत् । ननु मार्जारादीनां चाक्षुषं तेजोस्ति, तत एव तत्सिद्ध: किं बाह्यालोककल्पनयेत्यन्यत्रापि समानम् । ननु यथा यदृश्यते तथा तत्कल्प्यते, दिवास्मदादीनां चाक्षुषं सौर्यं च तेजो विज्ञानकारणं
जैन—यह कथन असत् है, क्योंकि दोनों को [भासुररूप और उष्णस्पर्शकी] अनुभूति जल और सुवर्ण में नहीं पायी जाती है। भावार्थ- यदि दोनों की दोनों पदार्थ में अनुभूति पायी जाती तो यह माना जा सकता है कि तेज सद्रव्य होने पर भी किरणों में इन दोनों की अनुभूति है अत: वे न दिखती हैं और न स्पर्श करने में आती हैं । परन्तु ऐसा है नहीं गरम जलमें उष्ण स्पर्श और सुवर्ण में भासुररूप पाया जाता है अत: इनका दृष्टांत देना घटित नहीं होता।
तथा दृष्ट पदार्थ के अनुसार ही अदृष्ट अर्थ की कल्पना होती है, ऐसा न माना जावे तो अतिप्रसंग होगा, इसका खुलासा करते हैं कि दिनकर की किरणें रात्रि में हैं, फिर भी वे उपलब्ध नहीं होती हैं, क्योंकि उनका रूप और स्पर्श उस समय अप्रकट रहता है, जैसे नेत्र किरणों के होनेपर भी उनका रूप स्पर्श अप्रकट रहता है इनके सद्भाव का ख्यापक अनुमान इस प्रकार है-रात्रि में बिलाव आदि पशुओं के नेत्र द्वारा रूप का दर्शन होता है-अर्थात् उन्हें रूप दिखाई देता है उसका कारण बाहर का प्रकाश है, क्योंकि जो पदार्थ के रूप का दर्शन होता है वह ऐसे ही होता है जैसे कि हम लोगों को दिन में पदार्थों का देखना बाह्य प्रकाश पूर्वक होता है ? अतः इस प्रकार के अतिप्रसंग द्वारा रात्रि में सूर्य की किरणों का होना मानना पड़ेगा।
नैयायिक-बिलाव आदि को जो रात्रि में दिखता है वह तेजोचक्षु द्वारा दिखता है क्योंकि उनके नेत्र तेजोद्रव्यरूप होते हैं, अतः उस तेज के प्रभाव से ही वे रात्रि में देखने का कार्य करते हैं, उनका वह देखना बाह्यालोकपूर्वक नहीं है । इसलिये उन्हें बाह्यप्रकाश की जरूरत नहीं पड़ती है ।
जैन-तो फिर हम मनुष्यादि को भी बाह्यप्रकाश की जरूरत नहीं होनी चाहिये, क्योंकि हमारी प्रांखें भी तेजोद्रव्यरूप हैं ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org