Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अप्रकट हो जैसे उष्ण जल में स्थित तेजो द्रव्य । जल में स्थित तेजोद्रव्य का स्पर्शगुण तो प्रगट है और रूपगुण अप्रकट है। चौथा तेजो द्रव्यका प्रकार नेत्र में पाया जाता है, क्योंकि उसमें न रूप ही प्रकट है और न स्पर्श ही प्रकट है । चक्षु किरणे प्रत्यक्ष से उपलब्ध नहीं हैं तो भी अनुमान से उनकी सिद्धि होती है। जैसे चन्द्रमा का उपरला भाग और पृथिवीका नीचे का भाग अनुमान से सिद्ध होता है । यही बात न्यायवार्तिक अध्याय ३ सूत्र ३३-३४ में कही है।
"नानुमीयमानस्य प्रत्यक्षतोऽनुपलब्धिरभावहेतुः ॥३४॥ यत् प्रत्यक्षतो नोपलभ्यते तदनुमानेनोपलभ्यमानं नास्ति इत्ययुक्तम्, यथा चन्द्रमसः परभागः, पृथिव्याश्चाधोभागः प्रत्यक्षलक्षण प्राप्तावपि न प्रत्यक्षं उपलभ्यते, अनुमानेन चोपलब्धं न तौ न स्तः । किं अनुमानं ? अर्वाग् भागवदुभय प्रतिपत्तिः, तथा चक्षुषस्य रश्मे: कुड्याद्यावरण मनुमानं संभवतीति ।
अर्थ- जो प्रत्यक्ष से उपलब्ध न होवे वह अनुमान से भी उपलब्ध नहीं होता ऐसी बात तो है नहीं अर्थात् प्रत्यक्ष से पदार्थ नहीं दिखाई देने से उनका अभाव है ऐसा नहीं कह सकते, ऐसे पदार्थ तो अनुमान से सिद्ध होते हैं। जैसे चन्द्रमा का उपरिमभाग और पृथिवी का नीचे का भाग प्रत्यक्ष से नहीं दिखने पर भी उसकी अनुमान से सत्ता स्वीकार की जाती है । उसी प्रकार चक्षु में किरणे प्रत्यक्ष से दिखने में नहीं पाती फिर भी उन किरणों को अनुमान के द्वारा सिद्ध किया जाता है। अर्थात चक्षु प्राप्यकारी नहीं होती तो दिवाल आदि से उसका प्रावरण नहीं होता। मतलब - चक्षु से विना छुए ही देखना होता तो रुकावटरहित भित्ति ग्रादि से अन्तहित पदार्थ का भी देखना होना चाहिये था, किन्तु ऐसा होता नहीं इसलिये मालम पड़ता है कि अवश्य ही चक्षु किरणे पदार्थ को छूकर जानती हैं [देखती हैं] और भी कहते हैं
___ “यस्य कृष्णसारं चक्षुः तस्य सन्निकृष्ट विप्रकृष्टयोस्तुल्योपलब्धिप्रसंगः । कृष्णसारं न विषयं प्राप्नोति, अप्राप्त्यविशेषात्, सन्निकृष्टविप्रकृष्टयोस्तुल्योपलब्धि: प्राप्नोति ? ( न्यायवार्तिक पृ. ३७३ सूत्र ३० ) अर्थात्-जो मात्र इस काली गोलकपुतली को ही चक्षु मानते हैं उनके मत के अनुसार तो दूर और निकटवर्ती पदार्थ समानरूप से स्पष्ट ही दिखयी देना चाहिये, तथा दूरवर्ती पदार्थ भी दिखाई देना चाहिये, क्योंकि चक्षुको उन्हें छूने की आवश्यकता तो है नहीं । जब यह कृष्णवर्ण चक्षु अपने विषयभूत जो रूपवाले पदार्थ हैं, उन्हें छूती नहीं है, तब क्या कारण है कि दूर और निकट का
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