Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवादः
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स्वतो जायमानस्यैवंरूपत्वात्, अन्यथा तदयोगात् । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता, स्वसामग्रीतः सकलभावानामुत्पत्त्यभ्युपगमात् । तृतीयपक्षोप्य विचारितरमणीयः; विशिष्ट कार्यस्याविशिष्ट कारणप्रभवत्वायोगात् । तथा हि-प्रामाण्यं विशिष्ट कारणप्रभवं विशिष्ट कार्यत्वादप्रामाण्यवत् । यथैव ह्यप्रामाण्य. लक्षणं विशिष्ट कार्य काचकामलादिदोषलक्षणविशिष्टेभ्यश्चक्षुरादिभ्यो जायते तथा प्रामाण्यमपि गुणविशेषणविशिष्टेभ्यो विशेषाभावात् ।
___ ज्ञतावप्यनभ्यासदशायां न प्रामाण्यं स्वतोऽवतिष्ठते; सन्देहविपर्ययाक्रान्तत्वात्तद्वदेव । ऐसा सभी मानते हैं, तीसरापक्ष-विज्ञानमात्र की सामग्री से (अर्थात् प्रमाण की जो उत्पादक सामग्री-इन्द्रियादिक हैं उसी सामग्री से) प्रमाण में प्रामाण्य उत्पन्न होता है, ऐसा माना जाय तो भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि प्रमाण से विशिष्ट कार्य जो प्रामाण्य है उसका कारण अविशिष्ट मानना-(ज्ञान के कारण जैसा ही मानना) अयुक्त है, अर्थात् प्रमाण और प्रामाण्य भिन्न २ कार्य हैं, अतः उनका कारणकलाप भी विशिष्ट-पृथक् होना चाहिये । अब यही बताया जाता है-प्रामाण्य विशिष्ट कारण से उत्पन्न होता है (पक्ष), क्योंकि वह विशिष्ट कार्यरूप है (हेतु), जैसा कि आप भाट्ट के मत में अप्रामाण्य को विशिष्ट कार्य होने से विशिष्टकारणजन्य माना गया है, अतः आप अप्रामाण्यरूप विशिष्टकार्य को काच कामल आदि रोगयुक्त चक्षु आदि इन्द्रियरूप विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होना जैसा स्वीकार करते हैं ठीक उसी प्रकार प्रामाण्य भी विशिष्ट कार्य होने से गुणवान् नेत्र प्रादि विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है ऐसा मानना चाहिये । प्रामाण्य और अप्रामाण्य इन दोनों में भी विशिष्ट कार्यपना समान है, कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः होती है, ऐसा जो प्रथम पक्ष रखा गया है उसका निरसन हो जाता है।
___ अब ज्ञप्ति के पक्ष में अर्थात् प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः जान लिया जाता है सो इस द्वितीय पक्ष में क्या दूषण है वह बताया जाता है-ज्ञप्ति की अपेक्षा प्रामाण्य स्वत: है ऐसा सर्वथा नहीं कह सकते, क्योंकि अनभ्यासदशा में अपरिचित ग्राम तालाब
आदि के ज्ञान में स्वतः प्रमाणता नहीं हुआ करती है, उस अवस्था में तो संशय, विपर्यय आदि दोषों से प्रमाण भरा रहता है, सो उस समय प्रमाण में स्वतः प्रमाणता की ज्ञप्ति कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती।
भावार्थ-जिस वस्तु को पहिलीबार ज्ञान ग्रहण करता है, या जिससे हम परिचित नहीं हैं वह प्रमाण की [या हमारी] अनभ्यासदशा कहलाती है, ऐसे अन
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