Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
चोदनाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहिताच्चोदनावाक्यादुपजायमाना लिङ्गालोक्त्यक्षबुद्धिवत्स्वतः प्रमाणम् । तदुक्तम्
"चोदनाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवजितः । कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाप्तोक्त्यक्षबुद्धिवत् ।। १ ।।"
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० १८४] तन्न ज्ञप्तौ परापेक्षा।
ज्ञान दोषरहित वेदवाक्यों से पैदा हुआ है और वेद स्वतः प्रमाणभूत है । जैसे-निर्दोष हेतु से उत्पन्न हुआ अनुमानप्रमाण, आप्तवचन से उत्पन्न हुआ आगमप्रमाण, इन्द्रियों से उत्पन्न हुमा प्रत्यक्षप्रमाण स्वतःप्रमाणस्वरूप होता है । इस प्रकार यहां तक भाट्ट ने यह सिद्ध करके बताया है कि प्रामाण्य की ज्ञप्ति में पर की अपेक्षा नहीं हुआ करती है।
- अब प्रमाण का जो स्वकार्य है उसमें भी पर की आवश्यकता नहीं रहती है ऐसा सिद्ध किया जाता है-प्रामाण्य जिसका धर्म है ऐसे प्रमाण का जो अपना कार्य (प्रवृत्ति कराना आदि) है उसमें भी उसे अन्य की अपेक्षा नहीं होती है । जैन अन्य की अपेक्षा होती है ऐसा मानते हैं, सो वह अन्य कौन है कि जिसकी अपेक्षा प्रमाण को लेनी पड़ती है, क्या वह संवादकज्ञान है कि कारणगुगण हैं ? संवादकज्ञान की अपेक्षा लेकर प्रामाण्य धर्मवाला प्रमाण निजी कार्य को करता है ऐसा कहो तो चक्रक दोष आता है, कैसे सो बताते हैं-प्रामाण्य धर्मवाला प्रमाण जब अर्थपरिच्छित्तिरूप अपने कार्य में प्रवृत्त होगा तब अर्थक्रिया को चाहने वाले व्यक्ति वहां प्रवृत्ति करेंगे और उन व्यक्तियों के प्रवर्तित होने पर अर्थक्रिया का ज्ञानरूप संवाद पैदा होगा, पुनः संवाद के रहते हुए ही उसकी अपेक्षा लेकर प्रमाण अपना कार्य जो अर्थक्रिया को जानना है उसमें प्रवृत्ति करेगा, इस तरह प्रमाण की स्वकार्य में प्रवृत्ति १, उसके बल पर फिर अर्थक्रियार्थी पुरुष की प्रवृत्ति २, और फिर उसकी अपेक्षा लेकर संवादकज्ञान ३, इन तीनों में गोते लगाते रहने से इस चक्रक से छुटकारा नहीं होगा, तीनों में से एक भी सिद्ध नहीं होगा। यदि भिन्नकालीन अर्थात् भावीकाल में होनेवाले संवादकज्ञान की अपेक्षा लेकर प्रमाण अपने कार्य में प्रवृत्ति करता है ऐसा कहा जाय सो वह भी बनता नहीं है, देखो-भावीकाल में होनेवाले संवादकज्ञान का वर्तमान में तो असत्त्व
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