Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
बाधकान्तरमुत्पन्न यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम् । ततो मध्यमबाधेन पूर्वस्यव प्रमाणता ।। अथान्यदप्रयत्नेन सम्यगन्वेषणे कृते । मूलाभावान्न विज्ञानं भवेद्बाधकबाधनम् ।। ततो निरपवादत्वात्तनै वाद्य बलीयसा। बाध्यते तेन तस्यैव प्रमाणत्वमपोद्यते ।। एवं परीक्षकज्ञानं तृतीयं नातिवर्त्तते ।
ततश्चाजातबाधेन नाशङ्कयौं बाधकं पुनः ॥" कथं वा चोदनाप्रभवचेतसो निशिङ्क प्रामाण्यं गुणवतो वक्त रभावेनाऽपवादकदोषाभावा
ज्ञानका सजातीय तथा संवादक ही रहता है अर्थात् दूसरे नंबर के ज्ञान की मात्र पुष्टि ही करता है ॥ ५ ॥ तथा कभी वह तीसरा ज्ञान बाधक ज्ञान का सजातीय न होकर विजातीय उत्पन्न हो जाय तो फिर बीच का जो दूसरे नंबर का बाधक ज्ञान है उसमें बाधा आने से प्रथम ज्ञानमें प्रमाणता मानी जायगी॥६॥ यदि कदाचित तीसरे ज्ञानको बाधित करनेवाला चौथा ज्ञान बिना इच्छाके उत्पन्न हो जाय तो उस चतुर्थज्ञान में प्रामाण्य का सर्वथा अभाव होने के कारण उसके द्वारा बाधक ज्ञान [द्वितीयको बाधित करनेवाला तृतीयज्ञान] जरा भी बाधित नहीं होता ॥७॥ इसतरह चतुर्थज्ञान निरुपयोगी होनेकी वजहसे एवं तृतीय ज्ञान द्वारा जिसका बाधा दैनापन भली प्रकारसे सिद्ध हो चुका है ऐसे बलवान द्वितीय ज्ञानद्वारा प्रथम बाधाको प्राप्त होता है और इसतरह द्वितीय ज्ञानसे मात्र प्रथम ज्ञानकी प्रमाणता समाप्त की जाती है । कहने का अभिप्राय यह है कि तीनसे अधिक ज्ञान होते ही नहीं हैं फिर निरपवादपने से द्वितीयज्ञान जो कि बलवान् है प्रथमज्ञान को बाधित कर देता है, इसलिये प्रथमज्ञान की प्रामाणता ही मात्र समाप्त हो जाती है, ।। ८ ।। इस प्रकार परीक्षक पुरुष के ज्ञान तृतीयज्ञान का उल्लंघन नहीं करते हैं इसलिये अब निर्बाधज्ञान वाले उस पुरुष को स्वतः प्रामाण्य- . वादमें शंका नहीं रहती ॥ ६ ॥ ये उपर्युक्त नो श्लोक प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परतः होता है इस बात की सिद्धि के लिये दिये गये हैं। किन्तु इनसे मीमांसकों का इच्छित-मनोरथ सिद्ध होनेवाला नहीं है, क्योंकि हम जैन ने प्रामाण्य को सर्वथा स्वतः मानने और अप्रामाण्य को सर्वथा परत: मानने में कितने ही दोष बताकर इस मान्यता का सयुक्तिक खण्डन कर ही दिया है ।
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