Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आगमविचारः
" तस्मादननुमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षवद्भवेत् । रूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात् ।। १ ।।”
[ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो०१८ ]
यादृशो हि घूमादिलिङ्गजस्यानुमानस्य विषयो धर्मविशिष्टो धर्मी तादृशा विषयेण रहितं शाब्दं सुप्रसिद्ध वैरूप्यरहितं च । तथा हि-न शब्दस्य पक्षधर्मत्वम्; धर्मिणोऽयोगात् । न चार्थस्य धर्मित्वम् ; तेन तस्य सम्बन्धासिद्ध ेः न चाप्रतीतेर्थे तद्धर्मतया शब्दस्य प्रतीतिः सम्भविनी । प्रतीते चार्थेन तद्धर्मतया प्रतिपत्तिः शब्दस्योपयोगिनी, तामन्तरेणाप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीतेः । अथ शब्दो धर्मी, अर्धवानिति साध्यो धर्मः, शब्द एव च हेतुः; न; प्रतिज्ञार्थकदेशत्व प्राप्त: । अथ शब्दत्वं हेतुरिति
पदार्थका प्रतिभास तो पहले ही हो चुकता है ।
बौद्ध - शब्दको धर्मी और प्रर्थवानको साध्यका धर्म बनाकर शब्दत्वरूप हेतु दिया जाय, अर्थात् " शब्द अर्थवान होता है, क्योंकि वह शब्दरूप है" इसप्रकार से शब्द और अर्थका अविनाभाव संबंध सिद्ध होता है । [ और इसतरहका श्रविनाभाव सिद्ध होनेपर शब्दजन्य आगमज्ञानका अनुमानमें अन्तर्भाव होना सिद्ध होता है ] । मीमांसक - इसतरह कहे तो प्रतिज्ञाके एकदेशरूप हेतु को माननेका प्रसंग प्राप्त होता है अर्थात् शब्द अर्थवान होता है, क्योंकि वह शब्द रूप है, ऐसा अनुमान वाक्य रचनेमें शब्द ही पक्ष और शब्द ही हेतुरूप बनता है, सो यह प्रतिज्ञाका एक देश नाम तुका दोष है |
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बौद्ध - उपर्युक्त अनुमान वाक्यमें शब्दको हेतु न बनाकर शब्दत्वको [ शब्दपनाको ] हेतु बनाते हैं अतः प्रतिज्ञाका एकदेशरूप दूषण प्राप्त नहीं होता ।
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मीमांसक - यह भी ठीक नहीं, शब्दत्वको हेतु बनावे तो वह साध्यका अगमक रहेगा, क्योंकि शब्दत्व तो गो प्रश्व आदि सभी शब्दों में पाया जाता है अतः वह शब्दत्व विवक्षित शब्दका अर्थके साथ अविनाभाव सिद्ध करनेमें गमक नहीं बन सकता, तथा हम लोग आगे गो शब्द में शब्दत्वका निषेध भी करनेवाले हैं (क्योंकि हम मीमांसक गो आदि शब्दको प्रतीतादि कालोंमें एक ही मानते हैं सो ऐसे गो शब्द में शब्दत्व सामान्य रह नहीं सकता "न एक व्यक्तो सामान्यम्" एक गो शब्दरूप व्यक्ति में शब्दत्व सामान्यका रहना असंभव है, उसका कारण भी यह है कि सामान्य तो
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