Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अर्थापत्त: अनुमानेऽन्तर्भावः प्रवृत्त भूयोदर्शनं साध्यमिण्यप्यस्यान्यथानुपपन्नत्वं निश्चाययति, दृष्टान्तमिण्येव वा ? तत्रोत्तरः पक्षोऽयुक्तः ; न खलु दृष्टान्तमिरिण निश्चितान्यथानुपपद्यमानत्वोर्थोऽन्यत्र साध्यमिणि तथात्वेनानिश्चितः स्वसाध्यं प्रसाधयति अतिप्रसङ्गात् । प्रथमपक्षे तु लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकार्थयोर्भेदाभावः स्यात् ।
__ ननु लिङ्गस्य दृष्टान्तमिरिण प्रवृत्तप्रमाणवशात्सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः, अर्थापत्त्युत्थापकार्थस्य तु साध्यमिण्येव प्रवृत्तप्रमाणात्सर्वोपसंहारेणादृष्टार्थान्यथानुपपद्यमानत्वनिश्चय
यदि सिद्ध करना माने तो अतिप्रसंग दोष पायेगा, अर्थात साध्यधर्मरूप से अनिश्चित हुआ हेतु यदि साध्यको सिद्ध कर सकता है तो मैत्री-पुत्रत्वादिरूप हेतु भी स्वसाध्य के ( गर्भस्थमैत्री बालक में कृष्णत्वादि के ) साधक बन जावेंगे, अर्थात् "गर्भस्थो मंत्रीपुत्रः श्यामः तत्पुत्रत्वात्" गर्भ में स्थित मैत्री का पुत्र काला है क्योंकि वह उसी का पुत्र है, ऐसे ऐसे हेत्वाभास भी स्वसाध्यको सिद्ध करनेवाले हो जावेंगे।
प्रथमपक्ष-भूयोदर्शन साध्यधर्मी में दाहके अन्यथानुपपन्नत्व का निश्चय कराता है ऐसा कहा जाय तो भी ठीक नहीं, क्योंकि इस मान्यता के अनुसार लिङ्ग में और अर्यापत्ति उत्थापक पदार्थ में कोई भेद नहीं रहता है।
मीमांमक-धूम आदि जो हेतु हैं उनका दृष्टान्त धर्मी जो रसोइघर आदि हैं उनमें तो प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा सर्वोपसंहाररूप से अर्थात् जो जो धूमवाला होता है वह वह नियम से अग्निवाला होता है इस प्रकार से स्वसाध्यके साथ नियतरूप से रहने का निश्चय होता है, तथा-अर्थापत्तिका उत्थापक जो पदार्थ है उसका तो अपने में ही [मात्र साध्यधर्मी में ही-अग्निमें ही] प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा सर्वोपसंहार रूपसे जो जो स्फोट है वह सर्व ही तज्जनक शक्तियुक्त अग्निका कार्य है इत्यादि प्रकार से अदृष्टार्थ की अन्यथानुपपद्यमानता का निश्चय होता है, इसतरह से लिंग और अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ में भेद रहता है. कहने का तात्पर्य यही है कि अनुमानमें हेतु और साध्यका अविनाभाव संबंध पहिले से ही सपक्षादि से ज्ञात कर लिया जाता है यह बहिःव्याप्ति है जब कि अर्थापत्ति में ऐसा नहीं है, वहां तो हेतु का स्वसाध्यके साथ अविनाभाव संबंध साध्यधर्म से हो ग्रहण किया जाता है।
जैन-यह कथन युक्त नहीं है । क्योंकि जो लिंग होता है वह सपक्ष में रहने मात्रसे (अन्वय से) ही स्वसाध्यका गमक होता हो [निश्चायक होता हो] ऐसा नहीं
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