Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"बुद्धिरेव तदाकारा तत उत्पद्यते यदा । तदाऽस्पष्टप्रतीभासव्यवहारो जगन्मतः ।। "
[ प्रमाणवातिकालं० प्रथमपरि० ]
द्विचन्द्रादिप्रतिभासेपि तद्वयवहारानुष्ङ्गाच्च । स्पष्टप्रतिभासेन बाध्यमानत्वादस्य निर्विषयत्वमन्यत्रापि समानम् । यथैव हि दूरादस्पष्टप्रतिभासविषयत्वमर्थस्या रात्स्वष्ट्रप्रतिभासेन बाध्यते तथा सन्निहितार्थस्य स्पष्ट प्रतिभासविषयत्वं दूरादस्पष्टप्रतिभासेन, प्रविशेषात् ।
होता है ] यदि कहीं २ अस्पष्टता को विषय करनेवाले ज्ञानमें विसंवादकता देखी जाती है, इसलिये इस ज्ञानको सर्वत्र विसंवादी माना जाय तो स्पष्टता को विषय करने वाले ज्ञान में भी कहीं २ विसंवादकता देखी जाती है अतः उसे भी विसंवादी मानने का प्रसंग प्राप्त होगा, इस प्रकार स्पष्टता को और अस्पष्टता को विषय करनेवाले दोनों ही ज्ञानों में संवादकता श्रौर विसंवादकता समानरूप से ही है । इसलिये बौद्धके प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ में जो कहा गया है वह असत् ठहरता है
"जब पदार्थ से अतदाकार ज्ञान उत्पन्न होता है, तब अस्पष्ट प्रतिभासका व्यवहार जगत में माना जाता है ॥ १ ॥
इस कारिका के प्रकरण में बौद्ध यह कहना चाहते हैं कि स्पष्टत्व और अस्पष्टत्व पदार्थ के धर्म हैं किन्तु जब ज्ञान पदार्थ के आकारवाला उत्पन्न न होकर अतदाकार वाला उत्पन्न होता है तब उस ज्ञानको अस्पष्ट ज्ञान है ऐसा कहने लग जाते हैं इत्यादि, सो यह कथन उन्हींके मतसे बाधित होगा, देखिये ! जो ज्ञान अतदाकारसे उत्पन्न होता है वह अस्पष्टपने से व्यवहृत होता है ऐसा कहेंगे तो द्विचंद्र आदि के ज्ञान अस्पष्ट प्रतिभास वाले मानने पड़ेंगे ? किन्तु बौद्धने इन द्विचन्द्रादिके ज्ञान को स्पष्टत्व रूपसे व्यवहृत किया है ।
बौद्ध - द्विचन्द्र प्रादि का ज्ञान तो आगे जाकर स्पष्ट प्रतिभास से बाधित होता है, अत: इस ज्ञानको हम निर्विषय मानते हैं ?
जैन - यही बात स्पष्ट ज्ञान में भी घटित हो जावेगी, अर्थात् जिस प्रकार दूर से पदार्थका जो प्रस्पष्ट प्रतिभास होता है वह निकट से होनेवाले स्पष्ट प्रतिभास से बाधित होता है, वैसे ही निकटवर्ती पदार्थका प्रतिभास दूर से होनेवाले अस्पष्टप्रतिभास से बाधित होता ही है । इस तरह दोनों में समानता है ।
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