Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विशदत्वविचारः
** तत्राद्यप्रकारं विशदमित्यादिना व्याचष्ट
विशदं प्रत्यक्षम् ।। ३॥ विशदं स्पष्ट यद्विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् । तथा च प्रयोगः-विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वात्, यत्त न विशदज्ञानात्मक तन्न प्रत्यक्षम् यथाऽनुमानादि, प्रत्यक्षं च विवादाध्यासितम्, तस्माद्विशदज्ञानात्मकमिति ।
प्रमाण की संख्या का निर्णय होने के बाद अब प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण श्री माणिक्यनंदी आचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है
सूत्र-विशदं प्रत्यक्षम् ॥ ३ ॥
सूत्रार्थ-विशद-स्पष्ट-ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है, जो ज्ञान स्पष्ट होता है वही प्रत्यक्ष है, अनुमानप्रयोग-विशदज्ञानस्वरूप प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष है, जो विशदज्ञानात्मक नहीं होता वह प्रत्यक्ष भी नहीं होता, जैसे अनुमान
आदि विशद नहीं हैं अतः वे प्रत्यक्ष भी नहीं हैं, प्रत्यक्ष यहां साध्य है अत: उसमें विशदज्ञानात्मकता सिद्ध की गई है।
प्रत्यक्षप्रमाण का यह लक्षण अन्य बौद्ध आदि के द्वारा माने हुए प्रत्यक्ष का निरसन कर देता है, जैसे बौद्ध कहता है कि अकस्मात्-अचानक धूम के देखने से जो ऐसा ज्ञान होता है कि यहां अग्नि है वह प्रत्यक्ष है, तथा जितने भी पदार्थ सद्भाव रूप या कृतक रूप होते हैं वे सब क्षणिक हैं, अथवा जितने भी धूमयुक्त स्थान होते हैं वे सब अग्नि सहित होते हैं इत्यादि रूप जो व्याप्तिज्ञान है वह यद्यपि अस्पष्ट है फिर भी बौद्धों ने उसे प्रत्यक्ष माना है, सो इन सब ज्ञानों में प्रत्यक्षपना नहीं है यह बात प्रत्यक्ष के इस विशदत्वलक्षण से साबित हो जाती है, यदि बौद्ध अस्पष्ट अविशद ज्ञानको भी प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकार करते हैं तो फिर अनुमान ज्ञान में भी प्रत्यक्षता का प्रसङ्ग पाने से प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाणों की मान्यता नहीं बनती है,
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