Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अर्थवाला है शब्दरूप होने से" यह अनुमान भी शब्दमें अनुमानरूपता सिद्ध नहीं करता, क्योंकि अर्थका शब्द के साथ अन्वय तथा व्यतिरेक घटित नहीं होता है, अर्थात् जहां जहां अर्थ है वहां वहां शब्द है और जहां जहां अर्थ नहीं वहां वहां शब्द नहीं, ऐसा अन्वय व्यतिरेक नहीं पाया जाता, अतः आगम एक पृथक् प्रमाण ही सिद्ध होता है, तथा मीमांसक प्रादिके यहां शब्दको नित्यव्यापी माना है इसलिये भी शब्द और अर्थका अन्वय आदि संबंध नहीं बन पाता है, इस प्रकार बौद्ध के दो ही प्रमाण मानने का आग्रह खंडित हो जाता है। यहां पर जैन ने चुप रहकर ही बौद्धके मंतव्यका मीमांसक द्वारा निरसन करवाया है।
* प्रागमप्रमाण का पृथकपना और उसका सारांश समाप्त *
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