Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आगमविचारः
अन्वयाभावे च व्यतिरेकस्याप्यभावः -
" अन्वयेन विना तस्माद्व्यतिरेकः कथं भवेत् ।" [
इत्यभिधानात् । ततः शब्दं प्रमाणान्तरमेव ।
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उस काल में अर्थ अवश्य है ऐसा अन्वय सिद्ध नहीं होता, तथा शब्द नित्य एवं व्यापक है वह तो सब पदार्थों में समान रूपसे अन्वित है अतः सर्वत्र होने के कारण व्यतिरेक व्याप्ति घटित नहीं हो सकती अर्थात् जहां जहां अर्थ नहीं होता वहां वहां शब्द भी नहीं होता ऐसा व्यतिरेक शब्दके सर्वत्र व्यापक रहने के कारण बन नहीं सकता । सभी शब्दों द्वारा सभी अर्थों की प्रतिपत्ति हो जानेका प्रतिप्रसंग भी आता है, क्योंकि व्यापक होने की वजह से सभी शब्द सब अर्थों में मौजूद हैं || ३ || ४ || यह भी नियम है कि जिसमें अन्वय घटित नहीं होता उसमें व्यतिरेक भी घटित नहीं होता है " अन्वयेन विना व्यतिरेकः कथं भवेत् " ऐसा आगम वाक्य है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि शब्द जन्य ज्ञान अनुमान में अन्तर्लीन नहीं हो सकता वह तो आगम प्रमाण रूप पृथक् ही सिद्ध होता है ।
* श्रागमविचार समाप्त*
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श्रागमप्रमाण का पृथक्पना और उसका सारांश
बौद्ध – आगम प्रमाणको अनुमान में शामिल कर देना चाहिये जैसे अनुमान परोक्ष अर्थ से संबद्ध होकर उसे ग्रहण करता है वैसे ही श्रागम भी परोक्ष विषय से संबद्ध होकर ही ग्रहण करता है, अतः प्रागम और अनुमान एक ही है ।
मीमांसक - यह बौद्धका कहना बुद्धिका द्योतक नहीं है ऐसा कहो तो प्रत्यक्ष भी अनुमान में शामिल हो जायगा, क्योंकि वह भी विषय से संबद्ध होकर जानता है, आपने अनुमान में श्रागम को कैसे शामिल किया है ? क्योंकि अनुमान की तरह आगम त्रिरूप हेतुजन्य नहीं होता है, तथा उसका विषय भी अनुमेय नहीं होता । " शब्द
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