Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमाण्डेि
"मेयो यद्वदभावो हि मानमप्येवमिष्यताम् । भावात्मके यथा मेये नाभावस्य प्रमाणता ।। तथैवाभावमेयेपि न भावस्य प्रमाणता।"
[ मी• श्लो० अभाव० ४५-४६ ] इति । ततःशाब्दादीनां प्रमाणान्तरत्वप्रसिद्ध। कथं प्रत्यक्षानुमानभेदात्प्रमाणद्वै विध्यं परेषां
व्यवतिष्ठत ?
इसप्रकार पागम प्रमाणसे लेकर प्रभाव प्रमाण तक अनेक प्रमाणोंकी सिद्धि होती है अतः बौद्धके प्रत्यक्ष और अनुमान के भेदसे दो प्रकारके प्रमाणोंकी संख्या किसप्रकार व्यवस्थापित की जा सकती है ? अर्थात् नहीं की जा सकती। यहां पर आगमादि तीन प्रमाणोंके प्रकरणोंमें जैनाचार्यने स्वयं तटस्थ रहकर मीमांसक द्वारा बौद्धके मंतव्यका निरसन कराया है ।
* प्रभावविचार समाप्त .
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