Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवादः
"तस्मात्स्वतः प्रमाणत्वं सर्वत्रौत्सगिकं स्थितम् । बाधकरणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते ॥ पराधीनेपि वै तस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते । प्रमाणाधीनमेतद्धि स्वतस्तच्च प्रतिष्ठितम् ।। प्रमारणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते । न सिध्यत्यप्रमाणत्वमप्रमाणात्तथैव हि ।। बाधकप्रत्ययस्तावदान्यत्वाऽवधारणम् । सोऽनपेक्षः प्रमाणत्वात्पूर्वज्ञानमपोहते ।। यत्रापि त्वपवादस्य स्यादपेक्षा क्वचित्पुनः। जाताशङ्कस्य पूर्वेण साप्यन्येन निवर्तते ॥
प्रथम ज्ञान अपने में प्रमाणता के लिये संवादज्ञान की अपेक्षा रखे तो अनवस्थादि दोष आते हैं अत: इनसे बचने के लिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों में निरपवाद स्वतः ही प्रामाण्य आना स्वीकार किया गया है अप्रामाण्य तो बाधक कारण और इन्द्रिय दोष से आता है और उनके ज्ञान से वह हटाया जाता है ॥ १॥ अप्रामाण्य को पराधीन मानने पर अनवस्था प्रायेगी सो भी बात नहीं, क्योंकि अप्रामाण्य का निश्चय तो प्रमाण के प्राधीन है और प्रमाण स्वतः प्रमाणभूत है ॥ २ ॥ जिस प्रकार प्रमाणभूत ज्ञान अन्य प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं किया जाता उसी प्रकार अप्रमाण किसी प्रमाणभूत ज्ञानके बिना अप्रमाण मात्रसे सिद्ध नहीं हुआ करता ॥३॥ पदार्थका अन्यथारूपसे अवधारण [जानना] करना बाधक प्रत्यय कहलाता है वह बाधक प्रत्यय अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि वह स्वयं में प्रमाणभूत होता है सो इस तरह का बाधक ज्ञान आकर पूर्व ज्ञान में [ मरीचिका में जायमान जल ज्ञानमें ] बाधा उपस्थित करता है अर्थात् यह जल नहीं है मरु मरीचिका है, ऐसा कहता है ॥४॥ यदि कदाचित् किसी विषय में बाधक प्रत्यय को पुनः अन्य बाधक ज्ञान की अपेक्षा लेनी पड़े तो जिसे शंका हुई है ऐसे पुरुष की वह शंका अन्य बाधक प्रत्यय से दूर हो जाती है । मतलब किसी को "यह जल है" ऐसा ज्ञान हुआ उसे बाधित करने के लिये बाधक ज्ञान पाया और उसने प्रकट किया कि यह जल ज्ञान सत्य नहीं है इत्यादि सो उस बाधक प्रत्यय को कदाचित् अपनी सत्यता निश्चित करने के लिये जब अन्य ज्ञान की [बाधकान्तर की] अपेक्षा करनी पड़े तब तीसरा बाधक ज्ञान आता है किन्तु वह तीसरा ज्ञान उस दूसरे
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