Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रत्ययेन प्रामाण्यस्याजन्यत्वात्स्वतो भावेऽप्रामाण्यस्यापि सोस्तु । न खलुत्पन्ने विज्ञाने तदप्युत्तरकालभाविविसंवादप्रत्ययाद्भवति ।
यञ्चोक्तम्-'लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु' तदप्युक्तिमात्रम् ; यथावस्थितार्थव्यवसायरूपं हि संवेदनं प्रमाणम्, तस्यात्मलाभे कारणापेक्षायां काऽन्या स्वकार्य प्रवृत्तिर्या स्वयमेव
भावार्थ-जैन यद्यपि प्रामाण्य का स्वतः होना और पर से होना दोनों प्रकार से होना मानते हैं, किन्तु जब भाट्ट ने यह हठाग्रह किया कि पर से प्रामाण्य हो हो नहीं सकता, क्योंकि "नासती शक्तिः कत्तु मन्येन पार्यते" अपने में नहीं रही हुई शक्ति दूसरेके द्वारा पैदा नहीं की जा सकती है, इत्यादि-तब प्राचार्य ने कहा कि ऐसी बात है तो अप्रामाण्य भी पर से उत्पन्न नहीं हो सकता, जिसे आपने दोषरूप पर कारण से उत्पन्न होना स्वीकार किया है, अप्रामाण्य के विषय में भी "नह्य सती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते" यह नियम लागू होता है, हां, इतना जरूर है कि मिथ्यात्वरूप अन्तरंग कारण और सदोष इन्द्रियादिरूप बहिरंग कारणों से उस ज्ञान में विपरीतता आती है। यहां ज्ञान को इन्द्रियों से जन्य जो माना है वह सहायक कारण की अपेक्षा से माना है । ज्ञान और उसकी अर्थग्रहण शक्ति ये दोनों अभिन्न हैं-अत: ज्ञान यदि इन्द्रियरूप कारण से (सहायक कारण की अपेक्षा से) उत्पन्न होता है तो साथ हो यथार्थग्रहण शक्ति भी उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार अप्रामाण्ययुक्त ज्ञान भी अपने अप्रामाण्यधर्म या शक्ति के साथ उत्पन्न होता है । ऐसा भाट्ट को मानना पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने प्रामाण्य में स्वतः ही होने का हठाग्रह किया है । जैन तो स्याद्वादी हैं, वे प्रामाण्य और अप्रामाण्य को स्वतः परतः दोनों रूप से होना मानते हैं । यहां सिर्फ भाट्ट के एकान्त पक्ष का खण्डन करने के लिये कहा है कि प्रामाण्य स्वत: होता है तो अप्रामाण्य भी स्वतः होगा इत्यादि, इसी विषय पर आगे भी कह रहे हैं । भाट्ट का कहना है कि पीछे से आनेवाला जो संवादकज्ञान है उससे ज्ञान में प्रामाण्य पैदा नहीं होता है, इसलिये हम प्रामाण्य को स्वतः ही होना मानते हैं, सो हम जैन का कहना है कि अप्रामाण्य भी पीछे से आनेवाले विसंवाद या दोष से पैदा नहीं होता है, इसलिये अप्रामाण्य को भी स्वतः होना मानना चाहिये । ऐसा तो होता ही नहीं कि ज्ञान उत्पन्न हो चुका हो और उसमें अप्रामाण्य उत्तर कालीन विसंवादक ज्ञान से उत्पन्न हो जाय । अतः अप्रामाण्य पीछे दोष आदि पर कारण से उत्पन्न होता है यह कथन असत्य ही ठहरता है।
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