Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवादः
४५१
वादस्तिमिराद्याहितविभ्रमज्ञानवत् ?
यच्चान्यदुक्तम् - क्वचित्कूटेपि जयतुङ्गे ज्ञानं प्रमाणं स्यात्कतिपयार्थक्रियादर्शनात्, तत्र कुटे कूटज्ञानं प्रमाणमेवाऽकूटज्ञानं तु न प्रमाणं तत्संवादाभावात् । सम्पूर्णचेतनालाभो हि तस्यार्थक्रिया न कतिपयचेतनालाभ इति ।
यच्च कविषयं भिन्नविषयं वा संवादकमित्युक्तम् ; तत्रैकाधारवत्तिरूपादीनां तादात्म्यप्रतिबन्धेनान्योन्यं व्यभिचाराभावात् । जाग्रद्दशारसादिज्ञानं रूपाद्यविनाभावि रसादिविषयत्वात् । भिन्नविषयत्वेप्याशङ्कित विषयाभावस्य रूपज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयात्मकम् । दृश्यते हि विभिन्नदेशाकारस्यापि वीणादे रूपविशेषदर्शने शब्दविशेषे शङ्काव्यावृत्ति. किं पुनर्नात्र ? अविनाभावो हि संवाद्यसंवादक
नहीं है। संपूर्ण चेतनालाभ होना ही उस पदार्थ की अर्थ क्रिया कहलाती है न कि कतिपय चेतनालाभ ।
आप भाट्ट ने पूछा था कि पूर्व ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय करने वाला जो संवादक ज्ञान आता है वह संवादक ज्ञान पूर्वज्ञान के विषय को ही ग्रहण करने वाला होता है अथवा भिन्न विषय वाला होता है इत्यादि उस पर हम जैन कहते हैं कि जहां एक ही आधार में रहने वाले या एक संतानवर्ती जो रूप रस आदि विषय होते हैं उनका तादात्म्य संबंध होने के कारण वे एक दूसरे से व्यभिचरित नहीं होते हैं अत: ये भिन्न विषय रूप होकर भी परस्पर में संवादक बन जाते हैं । जाग्रद्र दशा में होने वाला रसादि का ज्ञान रूपादिका अविनाभावी होता है क्योंकि वह रसादिको विषय करनेवाला है। रूप ज्ञान और रस का ज्ञान भिन्न भिन्न विषय वाले हैं तो भी उनमें से जो प्रथम हो उसके प्रामाण्य का निश्चय प्रागे के ज्ञान कराते हैं, देखा भी जाता है कि भिन्न देश एवं आकार वाले ऐसे वीणा आदि के रूप विशेष का ज्ञान होने पर वह रूप ज्ञान पहले सुने हुए उसी वीणा के शब्द के विषय में उत्पन्न हुई शंका को दूर कर उसमें प्रमाणता लाते हैं, अर्थात् पहले दूर से वीणा का शब्द सुना उस ज्ञान में शंका हुई कि यह किस वाद्य का शब्द है फिर वीणा का रूप देखा तब उस रूप ज्ञान ने शब्द ज्ञान की प्रमाणता निश्चित की। इस प्रकार भिन्न देश और प्राकार स्वरूप वीणादि का रूप विशेष देखने पर शब्दविशेष में जो शंका हुई थी उसकी व्यावृत्ति हो जाती है तब रूप ज्ञान से रस ज्ञान संबंधी या रस ज्ञान से रूपज्ञान संबंधी आशंका दूर होकर प्रामाण्य आवे तो क्या आश्चर्य है ? पूर्व और उत्तर ज्ञानों में अविनाभाव होना ही संवाद्य संवादकपना कहलाता है अन्य कुछ नहीं अर्थात् वे
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