Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवादः
तीयम्, भिन्न जातीयं वा ? प्रथमपक्षे किमेकसन्तानप्रभवम् ; भिन्नसन्तानप्रभवं वा ? न तावद्भिन्नसन्तानप्रभवम् ; देवदत्तघटज्ञाने यज्ञदत्तघटज्ञानस्यापि संवादकत्वप्रसङ्गात् । एकसन्तानप्रभवमप्यभिन्नविपयम्, भिन्न विषयं वा ? प्रथमविकल्पे संवाद्यसंवादकभावाभावोऽविशेषात् । अभिन्नविषयत्वे हि यथोत्तरं पूर्वस्य संवादकं तथेदमप्यस्य किन्न स्यात् ? कथं चास्य प्रमाणत्वनिश्चयः ? तदुत्तरकाल. भाविनोऽन्यस्मात् तथाविधादेवेति चेत्, तहि तस्याप्यन्यस्मात्तथाविधादेवेत्यनवस्था । प्रथमप्रमाणात्तस्य प्रामाण्यनिश्चयेऽन्योन्याश्रयः। भिन्नविषयमित्यपि वा
कले रजतज्ञानं प्रति उत्तर
ज्ञान में यज्ञदत्त के घट ज्ञान से प्रमारणता आने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, क्योंकि अन्य संतान का ज्ञान अपने प्रामाण्य में संवादक बनना आपने स्वीकार किया है अब दूसरे विकल्प की अपेक्षा विचार करते हैं कि प्रामाण्य में संवादकज्ञान कारण है वह अपना एक ही विवक्षितपुरुष संबंधी है सो ऐसा मानने पर फिर यह बताना पड़ेगा कि वह एक ही पुरुष का संवादक ज्ञान प्रामाण्य के विषय को ही ग्रहण करनेवाला है कि भिन्न विषयवाला है ? यदि कहा जावे कि प्रामाण्य का विषय और संवादक ज्ञान का विषय अभिन्न है तो संवाद्य और संवादक भाव ही समाप्त हो जावेगा-क्योंकि दोनों एक को ही विषय करते हैं । जहां अभिन्नविषयवाले ज्ञान होते हैं वहां उत्तरकालीन ज्ञान पूर्व का संवादक है ऐसा कह नहीं सकते, उसमें तो पूर्वज्ञान का संवादक जैसे उत्तरज्ञान है वैसे ही उत्तरज्ञान का संवादक पूर्वज्ञान भी बन सकता है । कोई विशेषता नहीं आती है । हम जैनसे पूछते हैं कि यदि प्रामाण्य, संवादकज्ञान की अपेक्षा रखता है तो उस संवादकज्ञान में भी प्रामाण्य है उसका निश्चय कौन करता है ? उत्तरकालीन अन्य कोई उसी प्रकारका ज्ञान उस संवादकज्ञान में प्रामाण्य का निर्णय करता है ऐसा कहा जाय तो अनवस्था पाती है, क्योंकि आगे आगे के संवादक ज्ञानों में प्रामाण्य के निर्णय के लिये अन्य २ संवादकज्ञानों की अपेक्षा होती ही जायगी। अनवस्था को दूर करने के लिये प्रथमज्ञान से संवादकज्ञान की प्रमाणता का निश्चय होता है ऐसा स्वीकार करो तो अन्योन्याश्रय दोष पायेगा, क्योंकि प्रथमज्ञान से उत्तरके संवादकज्ञान में प्रमाणता का निर्णय और उत्तरज्ञान की प्रमाणता से प्रथम ज्ञान में प्रामाण्य का निर्णय होगा, इस तरह किसी का भी निर्णय नहीं होगा। प्रामाण्य को अपना निर्णय करने के लिये जिसकी अपेक्षा रहती है ऐसा वह संवादक ज्ञान यदि भिन्न ही विषयवाला है ऐसा दूसरा पक्ष मानो तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में क्या दोष पाता है यह हम बताते हैं-प्रामाण्य का विषय और संवादक
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