Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
न चेन्द्रिये नर्मल्यादिरेव गुणः; नैर्मल्यं हि तत्स्वरूपम्, न तु स्वरूपाधिको गुणः तथा व्यपदेशस्तु दोषाभावनिबन्धनः । तथाहि-कामलादिदोषासत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियं तत्सत्त्वे सदोषम् । मनसोपि निद्राद्यभावः स्वरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः । विषयस्यापि निश्चलत्वादिस्वरूपं चलत्वादिस्तु दोषः । प्रमातुरपि क्षुधाद्यभावः स्वरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः।।
न चैतद्वक्तव्यम्-'विज्ञानजनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतम् यथार्थत्वं तु पूर्वस्मा
की उपलब्धि होती है तो वह पूर्वकथित जो इन्द्रियरूप कारणकलाप है उससे नहीं होती है, उसके लिये तो अन्य ही कारणकलाप चाहिये, इस प्रकार अप्रामाण्य तो परापेक्ष है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति में दोषों की अपेक्षा होती है। दूसरी एक बात यह है कि इन्द्रियमें जो निर्मलपना है वह तो उसका स्वरूप है, स्वरूप से अधिक कोई न्यारा गुण नहीं है, इन्द्रिय के स्वरूप को जो कोई "गुण" ऐसा नाम कहकर पुकारते भी हैं सो ऐसा कहने में निमित्त कारणके दोषों का अभाव है, अर्थात् जब इन्द्रियों में दोषों का अभाव हो जाता है तब लोग कह देते हैं कि इस इन्द्रिय में निर्मलतारूप गुण है इत्यादि । इसी बात को सिद्ध करके प्रकट किया जाता है-जब नेत्र में पीलियाकामला आदि रोग या काच बिन्दु आदि दोष नहीं होते हैं-तब नेत्र इन्द्रिय निर्मल है ऐसा कहते हैं, तथा-जब ये कामलादि दोष मौजूद रहते हैं तब उस इन्द्रिय को सदोष कहते हैं, जैसा चक्षु इन्द्रिय में घटित किया वैसा ही मन में भी घटित कर सकते हैं । देखो-मन का स्वरूप है-निद्रा आलस्य आदि का होना, और इससे विपरीत उन निद्रा आदि का होना वह दोष है, उसके सद्भाव में मन सदोष कहलावेगा, और इसी तरह प्रमेय का निश्चल रहना, निकटवर्ती रहना इत्यादि तो स्वरूप है और इससे उल्टा अस्थिर होना, दूर रहना इत्यादि दोष है । तथा-जानने वाला जो व्यक्ति है उसका अपना स्वरूप तो क्षुधा आदि का न होना, शोक आदि का न होना है, और इन पीड़ा
आदि का सद्भाव दोष है । इस प्रकार इन्द्रिय, विषय, मन और प्रमाता इनका अपने अपने स्वरूप में रहना स्वरूप है, और इनसे विपरीत होना-रहना वह दोष है और वे दोष ही अप्रामाण्य का कारण हुश्रा करते हैं, यह बात सिद्ध हुई । कोई इस तरह से कहें कि विज्ञान को उत्पन्न करनेवाली जो इन्द्रियां हैं उनका स्वरूप तो अयथार्थरूप से हई पदार्थ की उपलब्धि से जान लिया जाता है और पदार्थ की वास्तविक उपलब्धि तो पूर्व कथित इन्द्रियरूप कारण से उत्पन्न नहीं होकर अन्य गुण नामक सामग्री से होती है ? [अर्थात पदार्थ का असत्यग्रहण इन्द्रिय के स्वरूप से होता है और सत्यग्रहण
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