Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
अभ्यास दशायां तूभयमपि स्वतः । नापि प्रवृत्तिलक्षणे स्वकार्ये तत्स्वतोऽवतिष्ठते, स्वग्रहरणसापेक्षत्वादप्रामाण्यवदेव । तद्धि ज्ञातं सन्निवृत्तिलक्षणस्वकार्यकारि नान्यथा ।
ननुगुणविशेषणविशिष्टेभ्यः इत्यु (त्ययु) क्तम् ; तेषां प्रमाणतोऽनुपलम्भेनासत्त्वात् । न खलु प्रत्यक्षं तान् प्रत्येतु समर्थम् ; प्रतीन्द्रियेन्द्रियाप्रतिपत्ती तद्गुणानां प्रतीतिविरोधात् । नाप्यनुमानम् ;
भ्यस्त विषय में प्रामाण्य स्वतः नहीं आता, जैसे - स्वर संबंधी ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति स्वर सुनते ही बता देगा कि यह किस प्राणी का शब्द है । उस समय उस प्राणी को अन्य किसी को पूछना आदिरूप सहारा नहीं लेना पड़ता है, और उसका वह ज्ञान प्रामाणिक कहलाता है, किन्तु उस स्वरविषयक ज्ञान से जो व्यक्ति शून्य होता है उस पुरुष को स्वर सुनकर पूछना पड़ता है कि यह आवाज किसकी है, इत्यादि । अतः अनभ्यास दशा में प्रामाण्य की ज्ञप्ति स्वतः नहीं होती, यह सिद्ध हो जाता है | अभ्यास दशा में तो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही ज्ञप्ति की अपेक्षा स्वत: होते हैं, यहां तक अभ्यास अनभ्यासदशा संबंधी ज्ञप्ति की अपेक्षा लेकर प्रामाण्य स्वतः और परतः होता है इस पर विचार किया । अब तीसरा जो स्वकार्य का पक्ष है उस पर जब विचार करते हैं तो प्रमाण का प्रवृत्तिरूप जो कार्य है वह भी स्वतः नहीं होता है । क्योंकि उसमें भी अपने आपके ग्रहण की अपेक्षा हुआ करती है कि यह चांदी का ज्ञान जो मुझे हुआ है वह ठीक है या नहीं ? मतलब - जिस प्रकार भाट्ट अप्रामाण्य के विषय मैं मानते हैं कि अप्रामाण्य स्वतः नहीं प्राता - क्योंकि उसमें पर से निर्णय होता है कि यह ज्ञान काचकामलादि सदोष नेत्रजन्य है अतः सदोष है इत्यादि, उसी प्रकार प्रामाण्य में मानना होगा अर्थात् यह ज्ञान निर्मलता गुण युक्त नेत्र जन्य है अतः सत्य है । अप्रामाण्य जब ज्ञात रहेगा तभी तो वह अपना कार्य जो वस्तु से हटाना है, निवृत्ति कराना है उसे करेगा, अर्थात् यह प्रतीति प्रसत्य है इत्यादिरूप से जब जाना जावेगा तभी तो जाननेवाला व्यक्ति उस पदार्थ से हटेगा । अन्यथा नहीं हटेगा | वैसे ही प्रामाण्य जब ज्ञात रहेगा तभी उस प्रमाण के विषयभूत वस्तु में प्रामाण्य का प्रवृत्तिरूप स्वकार्य होगा, अन्यथा नहीं ।
मीमांसकभाट्ट - जैन ने अभी जो कहा है कि गुणविशेषण से विशिष्ट जो नेत्र श्रादि कारण होते हैं उनसे प्रमाण में प्रामाण्य आता है इत्यादि - सो यह उनका कथन अयुक्त है, क्योंकि प्रमाणसे गुणों की उपलब्धि नहीं होती है | देखिये - प्रत्यक्षप्रमाण तो गुणों को जान नहीं सकता, क्योंकि गुण प्रतीन्द्रिय हैं । प्रत्यक्षप्रमाण प्रतीन्द्रियवस्तु
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