Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ज्ञानान्त रवेद्यज्ञानवाद.
विरोधः" इस आपके वाक्य में क्रिया का अर्थ उत्पत्तिरूप क्रिया से हो तो भी ठीक नहीं, क्योंकि कोई अपने द्वारा आप पैदा नहीं होता, ऐसी उत्पत्तिरूप क्रिया तो ज्ञान में संभव ही नहीं । क्योंकि वह गुण है, ऐसी क्रिया तो द्रव्य में ही होती है । ज्ञानादि गुणों में नहीं।
आप योग का ऐसा कहना है कि एक ज्ञान अपने को और पर को दोनों को कैसे जान सकता है ? अर्थात् नहीं जान सकता सो आपके इस कथन में विरोध प्राता है, क्योंकि आपके पागम में ऐसा लिखा है कि-"सद्सद्वर्गः एकज्ञानालंबनमनेकत्वात्" अर्थात-सद्वर्गद्रव्यगुणादि और असद्वर्ग प्रागभाव आदि एक ईश्वरज्ञान के प्रालंबन (विषय) हैं, क्योंकि वे अनेक हैं । सद्वर्ग में गुणनामा पदार्थको लिया है और ज्ञान भी एक गुण है सो द्रव्य, तथा ज्ञानादि गुण एक ही ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं ऐसा कहनेसे तो ज्ञान अपने आपको जाननेवाला सिद्ध होता है।
तथा-पदार्थ को पहिला ज्ञान जानेगा फिर उस ज्ञान को दूसरा तथा उस दसरे को तीसरा जानेगा, सो ऐसी तीन ज्ञान की परंपरा हो जाती है, तो चौथे पांचवें आदि ज्ञान भी क्यों नहीं होवेंगे । यह एक जटिल प्रश्न है । आपके द्वारा इस संबंधमें दिये गये शक्ति क्षय आदि चारों हेतु गलत हैं । अर्थात् आपने कहा है कि आगे चौथे आदि ज्ञान पैदा करने की प्रात्मा में ताकत ही नहीं है, सो बात कैसे जचे । क्योंकि शक्ति का क्षय होता हो तो आगे लिंगादि ज्ञान भी जो होते रहते हैं (तीन ज्ञान के बाद भी) वे कैसे होंगे ? इनके नहीं होने पर सांसारिक व्यवहार का प्रभाव मानने का प्रसंग प्राप्त होगा। ईश्वर भी आगे की ज्ञानपरंपरारूप अनवस्था को रोक नहीं सकता, क्योंकि यह कृतकृत्य हो चुका है। उसे क्या प्रयोजन है। विषयान्तर संचार तब होता है जब कि ज्ञान ने पहिले विषय को जाना है, किन्तु यहां अभी धर्मी ज्ञान को जाना ही नहीं है । तब विषयान्त र संचार कैसे होगा ? अन्त में जब कुछ सिद्ध न हो पाया तब आपने कहा कि स्वपर दोनों को यदि ज्ञान जानेगा तो उसमें दो स्वभाव मानने पड़ेंगे तथा वे स्वभाव भी उस स्वभाववान् से भिन्न रहेंगे या अभिन्न इत्यादि कुतर्क किये हैं तो उसके बारे में यह जवाब है कि स्वभाव और स्वभाववान् में कथंचित् भेद है तथा कथंचित् अभेद भी है इसका खुलासा करते हैं कि स्वको जाननेवाला ज्ञान और परको जाननेवाला ज्ञान ये दोनों एक ही हैं एक ही ज्ञान स्वपर प्रकाशक
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