Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवाद:
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ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । किसी अप्रमाणज्ञान की अप्रमाणता उससे भिन्न विजातीय प्रमाणभूत ज्ञान से बतायी जाती है, इसलिये परतः अप्रामाण्य मानने में अनवस्था नहीं आती। प्रामाण्य की उत्पत्ति ज्ञप्ति तथा स्वकार्य इन तीनों में भी अन्य की अपेक्षा नहीं हुआ करती है । अर्थात् ज्ञान या प्रमाण की जिन इन्द्रियादि कारणों से उत्पत्ति होती है उन्हीं कारणों से उस प्रमाण में प्रामाण्य भी प्राता है । ज्ञप्ति अर्थात् जानना भी उन्हीं से होता है, उसमें भी अन्य की आवश्यकता नहीं है । तथा पदार्थ की परिच्छित्तिरूपस्वकार्य में भी प्रामाण्य को पर की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती है । ये सब स्वतः ही प्रमाण उत्पन्न होने के साथ उसी में मौजूद रहते हैं । अर्थात् प्रमाण इनसे युक्त ही उत्पन्न होता है । प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति और अभाव ये सब के सब प्रमाण स्वतः प्रामाण्य को लिये हुए हैं। प्रत्यक्षादि प्रमाण जिन जिन इन्द्रिय, लिङ्ग, शब्द आदि कारणों से उत्पन्न होते हैं उन्हीं से उनमें प्रामाण्य भी रहता है । यहां पर किसी को शंका हो सकती है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों में तो प्रामाण्य स्वत: होवे किन्तु आगमप्रमाण में स्वत: प्रामाण्य कैसे हो सकता है, क्योंकि शब्द तो अपनी सत्यता सिद्ध कर नहीं सकते, तथा शब्द की प्रामाणिकता तो गुणवान् वक्ता के ऊपर ही निर्भर है, सो इस शंकाका समाधान इस प्रकार से है
"शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितिः । तदभाव: क्वचित् तावद् गुणवत्वक्तृकत्वतः ।। ६२ ।। तद्गुणैश्यकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् ।
यदुवा वक्त रभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ।। ६३ ।। अर्थ-शब्द में दोष की उत्पत्ति वक्ता के आधीन है । वचन में अस्पष्टता आदि दोष तो वक्ता के निमित्त से होते हैं । वे दोष किसी गुणवान् वक्ता के वचनों में नहीं होते, ऐसा जो मानते हैं सो क्या वक्ता के गुण शब्द में संक्रामित होते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते, इसलिये जहां वक्ता का ही प्रभाव है वहां दोष रहेंगे नहीं और प्रामाण्य अपने आप आजायगा, इसीलिये तो हम लोग शब्द-आगम को अपौरुषेय मानते हैं, मतलब यह कि शब्द में अप्रामाण्य पुरुषकृत है, जब वेद पुरुष के द्वारा रचा ही नहीं गया है तब उसमें अप्रामाण्य का प्रश्न ही नहीं उठ सकता है।
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