Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवादः
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द्वारा उस प्रमाण का ग्रहण हो जाया करता है ।
"तेनास्य ज्ञाय मानत्वं प्रामाण्येनोपयुज्यते ।
विषयानुभवो ह्यत्र पूर्वस्मादेव लभ्यते ।। ८४ ।।
तेनास्य ज्ञायमानत्वमात्मीयप्रामाण्ये ग्रहीतव्ये नोपयोग्यवेत्याह (तेनेति) । कथं तदज्ञाने तत् प्रामाण्यग्रहणमित्याह (विषयानुभव इति) न ज्ञानसंबंधित्वेन प्रामाण्यं गृह्यते इति ब्रूमः, किन्तु विषयतथात्वं तद्विज्ञानस्य प्रामाण्यं तनिबन्धनत्वात् ज्ञाने प्रमाणबुद्धिशब्दयोः । तच्चाज्ञातादेव ज्ञान त् स्वतः एव गृहीतमित्यनर्थकं प्रमाणान्तरमिति ।
-मीमां० पृ० ५३-५४ अर्थ-पदार्थ को जाननेवाला प्रमाण है, उसको यदि न जाना जाय तो उसमें प्रामाण्य किस प्रकार समझा जाय सो ऐसा कहना बेकार है, क्योंकि पदार्थ का बोध होना जरूरी है, और वह तो उसी प्रमाण से हो चुका है, हम लोग प्रमाण को स्वव्यवसायी मानते ही नहीं हैं, अतः प्रमाण को वस्तुग्रहण करने के लिये स्वग्रहण की
आवश्यकता नहीं है, ज्ञान के संबंध से प्रामाण्यग्रहण होता है ऐसा हम कहते ही नहीं हैं, हम तो विषय अर्थात् पदार्थ का यथार्थ जानना प्रामाण्य है ऐसा स्वीकार करते हैं । पदार्थ का अनुभव करने में ज्ञान कारण है, उस कारण को ही तो प्रमाणशब्द से पुकारते हैं । तथा उसीमें प्रमाणपनेका भान होता है । इस प्रकार कोई भी प्रमाण हो उसमें प्रमाणता लानेके लिए अन्यको जरूरत नहीं रहती है । सब प्रमाण स्वतः ही प्रमाणभूत है यह सिद्ध हुअा ।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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