Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रामाण्यवाद का पूर्वपक्ष
मीमांसक "प्रत्येक प्रमाण में प्रमाणता स्वतः ही प्राती है और अप्रमाण में श्रप्रमाणता परत: ही आती है" ऐसा मानते हैं । इस स्वतः प्रामाण्यवाद का यहां कथन किया जाता है । प्रत्यक्षप्रमाण आदि ६ हों प्रमाणों में जो सत्यता अर्थात् वास्तविकता है वह स्वतः अपने आपसे है । किसी अन्य के द्वारा नहीं ।
" स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । नहि स्वतो ऽसती शक्तिः कर्तुं मन्येन प्राक्यते ॥"
- मीमांसक श्लो० ।। ४७ ।। पृ० ४५ अर्थ - सभी प्रमाणों में प्रामाण्य स्वतः ही रहता है, क्योंकि यदि प्रमाण में प्रामाण्य निज का नहीं होवे तो वह पर से भी नहीं आ सकता, जो शक्ति खुद में नहीं होवे तो वह भला पर से किस प्रकार आ सकती है, अर्थात् नहीं आ सकती ।
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" जाते ऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत्कारणशुद्धत्वं न प्रमाणान्तराद्भवेत् ॥ ४६ ॥ तत्र ज्ञानान्तरोत्पाद: प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ।। ५० ।। तस्यापि कारणे शुद्धे तज्ज्ञाने स्यात्प्रमाणता । तस्याप्येवमितीच्छंश्च न क्वचिद्वयवतिष्ठते ।। ५१ ।।
- मीमांसक श्लो० पृ० ४५-४६
जो प्रवादीगण प्रमाणों में प्रमारणता पर से प्राती है ऐसा मानते हैं उनके मत में अनवस्था दूषण आता है, देखिये - ज्ञान उत्पन्न हो चुकने पर भी तब तक वह पदार्थ को नहीं जान सकता है, कि जब तक उस ज्ञान के कारणों की सत्यता या विशुद्धि अन्य ज्ञान से नहीं जानी है, अब जब उस विवक्षित ज्ञान के कारण की शुद्धि का निर्णय देनेवाला जो अन्य ज्ञान आया है वह भी अज्ञात कारण शुद्धिवाला है, अतः वह भी पहिले ज्ञान के समान ही है । उसके कारण की शुद्धि अन्य तीसरे ज्ञान से होगी, इस प्रकार कहीं पर भी नहीं ठहरनेवाली अनवस्था आती है । अतः ज्ञान के कारणों
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