Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे
रमात्मा। प्रयोगः-अनाद्यनन्त प्रात्मा द्रव्यत्वात्पृथिव्यादिवत् । न तावदाश्रयासिद्धोयं हेतुः; आत्मनोऽहम्प्रत्ययप्रसिद्धत्वात् । नापि स्वरूपासिद्धः; द्रव्यलक्षणोपलक्षितत्वात् । तथाहि-द्रव्यमात्मा गुणपर्ययवत्त्वात्पृथिव्यादिवत् । न चायमप्यसिद्धो हेतुः; ज्ञानदर्शनादिगुणानां सुखदुःखहर्ष विषादादिपर्यायाणां च तत्र सद्भावात् । न च घटादिनानेकान्तस्तस्य मृदादिपर्ययत्वात् ।
ननु शरीररहितस्यात्मनः प्रतिभासे ततोऽन्योऽनादिनिधनोऽसाविति स्यात् जलरहितस्यानलस्येव, न चैवम्, प्रासंसारं तत्सहितस्यैवास्यावभासनात् । तत्र 'शरीररहितस्य' इति कोऽर्थः? कि तत्स्वभावविकलस्य, आहोस्वित्तद्देशपरिहारेण देशान्तरावस्थितस्येति ? तत्राद्यपक्षेऽस्त्येव तद्रहितस्यास्य प्रतिभासः-रूपादिमदचेतनस्वभावशरीरविलक्षणतया अमूर्तचैतन्यस्वभावतया चात्मनोऽध्यक्षगोचर
में दिया गया गुण पर्यायत्व हेतु भी प्रसिद्ध नहीं है । प्रात्मा में तो अनंते ज्ञान दर्शन आदि गुण भरे हुए हैं। तथा सुख दुःख आदि अनेक पर्यायें भी भरी हैं । इस द्रव्यत्व आदि हेतु को घट आदि द्वारा व्यभिचरित भी नहीं कर सकते, क्योंकि घटादि भी मिट्टी आदि द्रव्य की पर्याय स्वरूप हैं। मतलब-पृथिवी आदिमें भी द्रव्यत्व और पर्यायत्व रहता ही है ।
चार्वाक-शरीर रहित कहीं पर आत्मा का प्रतिभास होवे तब तो उसको अनादि निधन माना जाय, जैसे कि जल रहित अग्नि की कहीं पृथक् ही प्रतीति होती है, किन्तु ऐसी आत्मा की न्यारी प्रतीति तो होती नहीं है, संसार में हमेशा ही वह आत्मा शरीर सहित ही अनुभव में आता है ।
जैन-शरीर रहित आत्मा प्रतीति में नहीं आता ऐसा जो आपका कहना है सो “शरीर रहित" इस पद का क्या अर्थ है ? क्या शरीर के स्वभाव से रहित होने को शरीर रहित कहते हो कि शरीर के देश का परिहार करके अन्य किसी देश में रहने को शरीर रहित होना कहते हो ? प्रथमपक्ष की बात कहो तो वह बात असत्य है, क्योंकि शरीर के स्वभाव से रहित तो आत्मा का प्रतिभास तो अवश्य ही होता है, देखो-रूप आदि गुण युक्त अचेतन स्वभाव वाले ऐसे शरीर से विलक्षण स्वभाव वाला अमूर्त चैतन्यस्वभाववान ऐसा आत्मा तो प्रत्यक्ष के गोचर हो ही रहा है। दूसरा पक्ष-शरीर के देश का परिहार करके उसके रहने को शरीर रहित कहते हो तो बताईये कि आत्मा का शरीर से अन्यत्र अनुपलभ होने से अभाव करते हो कि शरीर देश में ही उपलब्ध होने से उसका अभाव करते हो ? प्रथम पक्ष में सिद्ध साधनता है, अर्थात् शरीर से अन्यत्र आत्मा की उपलब्धि नहीं होती ऐसा कहो तो वह बात हमें इष्ट ही है, क्योंकि हमारे यहां भी शरीर से अन्य स्थानों पर प्रात्मा का अभाव ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org