Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
मज्ञातमेव मयार्थस्य परिच्छेदकम्' इति ज्ञानान्तरं प्रतिपद्यते चेत् ; तदेव स्वार्थपरिच्छेदकं सिद्ध तथाद्यमपि स्यात् । न प्रतिपद्यते चेत्कथं तथाप्रतिपत्तिः ?
किञ्च, अर्थज्ञानमर्थमात्मानं च प्रतिपद्य 'अज्ञातमेव मया ज्ञानमथं जानाति' इति ज्ञानान्तरं
ज्ञान है और यह ईश्वर का या अन्य पुरुष का ज्ञान है इस तरह का भेद बनना जटिल हो जाता है । क्योंकि समवाय और सारी आत्माएं सर्वत्र व्यापक हैं । ज्ञान यदि स्वयं अप्रत्यक्ष है और पदार्थों को प्रत्यक्ष करता है तो धूमादि हेतु स्वयं अप्रत्यक्ष-अज्ञात रहकर ही अग्नि आदि साध्य का ज्ञान करा सकते हैं । यौग प्रत्यक्ष आगम, अनुमान और उपमा ऐसे चार प्रमारणों को मानते हैं, सो इनमें से प्रागम में तो शब्द मुख्यता है । अनुमान हेतु के ज्ञानपूर्वक प्रवर्तता है । उपमा प्रमाण में सादृश्य का बोध होना आवश्यक है । किन्तु जब कोई भी ज्ञान स्वय अगृहीत या अप्रत्यक्ष रहकर वस्तु को ग्रहण करता है या जानता है तब ये हेतु या शब्द आदिक भी स्वयं अज्ञात स्वरूपवाले . रहकर अनुमान या आगमादि प्रमाणों को पैदा कर सकते हैं । किन्तु ऐसा होता नहीं। इसलिये ज्ञानमात्र चाहे वह हम जैसे अल्पज्ञानी का हो चाहे ईश्वर का हो स्वयं को जाननेवाला ही होता है।
यौग से हम जैन पूछते हैं कि पदार्थ को जानने की इच्छा होने पर मैं जो अर्थज्ञान हूं सो पैदा हुया हूं इस प्रकार की प्रतीति होती है वह उसी प्रथमज्ञान से होगी कि अन्यज्ञान से होगी ? यदि उसी प्रथमज्ञान से होती है कहो तो हमारे जनमत की ही सिद्धि होती है । क्योंकि इस प्रकार अपने विषय में जानकारी रखनेवाला ज्ञान ही तो स्व और पर का जाननेवाला कहलाता है । दूसरा पक्ष- अर्थ जिज्ञासा होने पर मैं उत्पन्न हुआ हूं, ऐसा बोध किसी अन्य ज्ञान से होता है ऐसा माने तो उसमें भी प्रश्न होते हैं कि पदार्थ को जाननेवाला 'यह अर्थज्ञान मेरे द्वारा अज्ञात रहकर ही पदार्थ की परिच्छित्ति करता है" इस तरह की बात को अर्थज्ञान का ज्ञान समझता है या नहीं ? यदि समझता है तो वही सिद्धान्त-स्वपर को जानने का मत-पुष्ट होता है। इस तरह से जो पहिला अर्थज्ञान है, वह भी स्वपर को जाननेवाला हो सकता है। जैसे द्वितीय ज्ञान स्व और पर को जानता है, यदि वह द्वितीयज्ञान "मेरे द्वारा अज्ञात रहकर ही यह अर्थज्ञान अर्थ को जाना करता है" इस प्रकार की प्रतीति से शून्य है तो आप ही बताईए कि इतनी सब बातों को कौन जानेगा और समझेगा कि पहिले पदार्थ को जानने की इच्छा होने से अर्थज्ञान पैदा हुआ है फिर उस ज्ञान को जानने की इच्छा हुई
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