Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयक मलमार्तण्डे
तस्य तत्रानुप्रवेशात्तत्स्वरूपवत्, ज्ञानमेव तयोस्तत्रानुप्रवेशात्, तथा च कथं तस्य स्वपरप्रकाशनशक्तिद्वयात्मकत्वम् ? भिन्नौ चेत्स्वसंविदितौ, स्वाश्रयज्ञानविदितौ वा । प्रथमपक्षे स्वसंविदितज्ञानत्रयप्रसङ्गस्तत्रापि प्रत्येकं स्वपरप्रकाशस्वभावद्वयात्मकत्वे स एव पर्यनुयोगोऽनवस्था च । द्वितीयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशहेतु भूतयोस्तयोर्यदि ज्ञानं तथाविधेन स्वभावद्वयेन प्रकाशकं तर्ह्यनवस्था । तदप्रकाशकत्वे प्रमाणत्वायोगस्तयोर्वा तत्स्वभावत्वविरोध इति' एकान्तवादिनामुपलम्भो नास्माकम् ; जात्यन्तरत्वा
ज्ञान से भिन्न हैं कि
भाव से पर पदार्थ को जानता है वे दोनों स्वभाव या शक्तियां अभिन्न हैं ? यदि भिन्न हैं तो वे दो शक्तियां ही रहेंगी, क्योंकि ज्ञान का तो उनमें ही प्रवेश हो जायगा, जैसे ज्ञान के स्वरूपका ज्ञान में अनुप्रवेश है । अथवा - एक ज्ञानमात्र ही रह जायगा । क्योंकि दोनों स्वरूप का उसीमें प्रवेश हो जायेगा, इस तरह हो जाने पर ज्ञान स्वपरप्रकाशक स्वभावरूप दो शक्तियों वाला है ऐसा कैसे कह सकेंगे । अर्थात् नहीं कह सकेंगे । दूसरा विकल्प - ज्ञान से स्वपर को जानने की दोनों शक्तियां भिन्न हैं यदि ऐसा मानते हैं, तो उसमें भी प्रश्न उठता है कि वे ज्ञान की शक्तियां स्वसंविदित हैं अथवा अपने श्राश्रयभूत ज्ञान से ही जानी हुई हैं ? प्रथम पक्ष मानने पर तो एक ही आत्मा में तीन स्वसंविदित ज्ञान मानने पड़ेंगे, तथा - फिर वे एक एक भी स्वसंविदित होने के कारण दो दो शक्तिवाले ( स्व और पर के जानने वाले) होने से फिर वही प्रश्नमाला प्रावेगी कि वे शक्तियां भिन्न हैं कि अभिन्न हैं इत्यादि । इस प्रकार अनवस्था आती है इस अनवस्था से बचने के लिये यदि दूसरी बात स्वीकार करो कि वे दोनों शक्तियां अपने को जाननेवाली नहीं हैं किन्तु अपने आश्रयभूत ज्ञान से ही वे जानी जाती हैं सो ऐसा कहने पर भी दोष है । कैसे ? सो बताते हैं स्वपर प्रकाशनरूप कार्य में कारणभूत जो दो स्वभाव हैं, उनको ज्ञान यदि उसी प्रकार के दो स्वभावों के द्वारा जानेगा तो अनवस्था साक्षात् ही दिखाई दे रही है । यदि ज्ञान उन दोनों स्वभावों को नहीं जानता है, तब उस ज्ञान में प्रमाणपना नहीं रहता है । अथवा - वे दोनों स्वभाव उस ज्ञान के हैं ऐसा नहीं कह सकेंगे । क्योंकि वे शक्तियां ज्ञान से भिन्न हैं । और ज्ञान उनको ग्रहण भी नहीं करता है । इस प्रकार ज्ञान को स्वसंविदित मानने में कई दोष प्राते हैं ।
जैन - ऐसा यह लम्बा दोषों का भार उन्हीं के ऊपर है जो एकान्तवादी हठाग्रही हैं । हम स्याद्वादियों के ऊपर यह दोषों का भार नहीं है। हम तो एक भिन्न ही स्वभाववाला ज्ञान मानते हैं । स्वभाव और स्वभाववान् में भेद तथा अभेद के बारे में
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