Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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दृष्टात्तनिवृत्तौ स्वसंविदितज्ञानोत्पत्तिरेवातोऽस्तु किं मिथ्याभिनिवेशेन ? तन्न प्रत्यक्षाद्ध
ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
मिसिद्धिः ।
नाप्यनुमानात्; तत्सद्भावावेदकस्य तस्यैवासिद्ध ेः । सिद्धौ वा तत्राप्याश्रयासिद्ध्यादिदोषोपउसे छोड़कर वह उससे विपरीत अर्थात् जो एकार्थसमवेत नहीं है ऐसे दृष्टान्तादि में कैसे प्रवृत्त होगा ।
भावार्थ - ज्ञान पदार्थ को
जानता है, उसको अन्य दूसरे नम्बर का ज्ञान जानता है, इस प्रकार जब यौग ने कल्पना करी तब आचार्य ने अनवस्थादोष दिया, उस दोष को हटाने के लिये योग ने चार पक्ष रखे थे, शक्तिक्षय, ईश्वर, विषयान्तर संचार, और अदृष्ट, अर्थात् इन शक्तिक्षयादि होनेरूप कारणों से, दो तीन से अधिक ज्ञान पैदा नहीं होते ऐसा कहा था, इन पक्षों में से तृतीयपक्ष विषयान्तरसंचार पर विचार चल रहा है -- प्राचार्य कहते हैं कि ज्ञान या आत्मा के द्वारा दूसरे विषय के जानने में तभी प्रवृत्ति होती है जब पहिला विषय जिसे जानने की इच्छा पहिले ज्ञान में उत्पन्न हुई है उसे जान लिया जाय, उसके जाने विना दूसरे अन्य विषय में जानने की इच्छा किस प्रकार हो सकती है । अर्थात् नहीं हो सकती, तथा जब पहिला ज्ञान तो जान रहा था उसको जानने के लिये दूसरा ज्ञान प्रवृत्ति कर रहा था, उस द्वितीयज्ञान का विषय तो मात्र वह प्रथम ज्ञान है, अथवा कभी उस द्वितीय ज्ञान को विषय करने वाला तृतीय ज्ञान भी प्रवृत्त होता है ऐसा योग ने माना है, अतः तीसरा ज्ञान जो कि मात्र द्वितीयज्ञान को जानने में लगा है उस समय अपना विषय जो द्वितीयज्ञान है उससे हटकर वह अन्यविषय जो ज्ञान के कारण बाह्यविषय आदि हैं उन्हें जाननेरूप प्रवृत्ति करे सो ऐसी प्रवृत्ति वह कर नहीं सकता, यदि कदाचित् कोई कर भी लेवे तो बाह्य विषय निकट हों ही हों ऐसा नियम नहीं है, तथा क्वचित् बाह्यविषय मौजूद भी रहें तो भी ज्ञान का उसे ( उन्हें ) ग्रहण करने रूप व्यापार हो नहीं सकता, देखो - यह नियम है कि " अन्तरंग बहिरंगयो रंत रंगविधिर्बलवान् " अन्तरंग और बहिरंग में से अन्तरंगविधि बलवान होती है, अतः जब ज्ञानों की परंपरा अपर २ ज्ञानके जानने में लगी हुई है-अर्थात् प्रथम ज्ञान को द्वितीय ज्ञान और द्वितीयज्ञान को तृतीयज्ञान ग्रहण कर रहा है तब उस अन्तरंग ज्ञानविषय को छोड़कर बहिरंग साधनादि विषय में प्रवृत्ति या संचार होना संभव नहीं है, इसलिये विषयान्तर संचार होने से अनवस्था नहीं आवेगी ऐसी योग की कथनी सिद्ध नहीं होती है ।
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