Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अात्माप्रत्यक्षत्ववाद:
माने गये हेतु असिद्ध ठहरते हैं । अतः आत्मा और ज्ञान को प्रथम ही प्रत्यक्ष होना अर्थात् निजका अनुभव-अपने आपको इनका अनुभव होना मानना चाहिये, यही मार्ग श्रेयस्कर है । इस प्रकार यहां तक श्रीप्रभाचन्द्राचार्य ने प्रभाकर के आत्म अप्रत्यक्षवाद का या प्रात्मपरोक्षवाद का खंडन किया और आत्मा-स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष से प्रतिभासित होती है ऐसा आत्माप्रत्यक्षत्ववाद सिद्ध किया है।
* प्रात्माप्रत्यक्षत्ववाद का प्रकरण समाप्त *
प्रात्माप्रत्यक्षत्ववाद का सारांश प्रभाकर कर्ता (आत्मा) और करण (ज्ञान) इन दोनों को ही अत्यन्त परोक्ष मानते हैं। उनका कहना है कि प्रमिति क्रिया और कर्म ये ही प्रत्यक्ष हैं, और नहीं । इस पर जैनाचार्यों ने उन्हें समझाया है कि-आत्मा यदि सर्वथा अप्रत्यक्ष है तो ज्ञान से होने वाला पदार्थ का प्रतिभास किसे होगा, सुख दुःखादि का अनुभव भी कैसे संभव है क्योंकि ये सुखादि भी ज्ञान विशेषरूप हैं । अन्य किसी प्रत्यक्ष ज्ञान से सुखादि को प्रत्यक्ष होना मान लो तो भिन्न ज्ञान द्वारा जानने से उन सुखादिकों के द्वारा होने वाले अनुग्रह उपघातादिक आत्मा में न हो सकेंगे । क्योंकि जो ज्ञान हमारे से भिन्न है उस ज्ञान से हमको अनुभव हो नहीं सकता । तुम कहो कि पुत्र आदि के सुख का हमें अनुग्रहादिरूप अनुभव होता है जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है वैसे परोक्ष ज्ञान द्वारा सुखादि का अनुभव हो जावेगा सो यह बात ठीक नहीं है, अरे भाई ! जब कोई व्यक्ति उदासीन रहता है तब उसे अपने खुद के शरीर के सुखादि भी अनुग्रहादि नहीं कर पाते हैं तो फिर पुत्रादि के सुखादिक क्या करा सकेंगे। ऐसे तो दूसरे किसी यज्ञदत्तादि से किया गया विषयभोग अन्य किसी देवदत्तादि के सुख को करा देगा ? क्योंकि जैसे वह देवदत्त से भिन्न है और अप्रत्यक्ष है वैसे यज्ञदत्त से भी भिन्न तथा परोक्ष है। इस पर आपने जो यह युक्ति दी है कि जिसके अदृष्ट विशेष जो पुण्यपापादि हैं वे उसी को सुख दुःखादि अनुभव कराते हैं सो बात भी नहीं बनती है, क्योंकि अदृष्ट खुद भी प्रात्मा से भिन्न है।
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