Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद.
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भ्युपगमात्, तज्ज्ञानेन चक्षुरादीन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात् । अन्यदिन्द्रियं तेन चास्य सन्निकर्षो वान्यः । मनोन्तःकरणम्, तेन चास्य संयुक्तसमवायः सम्बन्धः, तत्प्रभवं चाध्यक्षं धर्मिस्वरूपग्राहकम् - मनो हि संयुक्तमात्मना तत्रैव समवायस्तज्ज्ञानस्येति; तदयुक्तम्; मनसोऽसिद्ध ेः । अथ 'घटादिज्ञानज्ञानम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वात् चक्षुरादिप्रभवरूपादिज्ञानवत्' इत्यनुमानात्तत्सिद्धिरित्यभिधीयते, तदप्यभिधानमात्रम्; हेतोरप्रसिद्ध विशेषणत्वात् । न हि घटादिज्ञानज्ञानस्याध्यक्षत्वं
हुए ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । अतः उस सन्निकर्ष प्रमाण से ज्ञान की सिद्धि होना असंभव है, क्योंकि ज्ञान का चक्षु आदि इन्द्रियों से सन्निकर्ष होना शक्य नहीं है । चक्षु प्रादि को छोड़कर और कोई इन्द्रिय ऐसी कौनसी है कि जिससे इस ज्ञान का सन्निकर्ष हो सके ।
यौग - मन नाम की एक ग्रन्तःकरणस्वरूप इन्द्रिय है, उसका ज्ञान के साथ संयुक्त समवायरूप संबंध होता है और उस संबंधरूप सन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ जो प्रत्यक्ष प्रमाण है उसके द्वारा इस धर्मिस्वरूप ज्ञान का ग्रहण होता है, देखिये - मन आत्मा से संयुक्त है, अतः मन का आत्मा में संयुक्त समवाय है और उसी आत्मा में ज्ञान समवाय संबंध से रहता है, इस तरह उस मन से संयुक्त हुए आत्मा में संयुक्त समवायरूप सन्निकर्ष से ज्ञान का ग्रहण होता है ।
जैन - यह कथन अयुक्त है, क्योंकि आपके मत में माने हुए मन की अभी प्रसिद्धि है, अत: उस प्रसिद्धमन से ज्ञान की सिद्धि होना संभव नहीं है ।
योग - हम अनुमान से मन की सिद्धि करके बताते हैं-घट यादि को जानने वाले ज्ञान का जो ज्ञान है वह मन स्वरूप इन्द्रिय और घट ज्ञानस्वरूप पदार्थ के सन्नि कर्ष से पैदा हुआ है । क्योंकि वह प्रत्यक्ष होकर ज्ञानरूप है, जैसा कि चक्षु प्रादि इन्द्रिय और रूप आदि पदार्थ के सन्निकर्ष से जन्य रूपादि का ज्ञान होता है । इस अनुमान से मन की सिद्धि हो जाती है ।
जैन - यह भी कहनामात्र है, क्योंकि आपने जो हेतु का विशेषण "प्रत्यक्षत्वे सति" ऐसा दिया है वह प्रसिद्ध है, सिद्ध नहीं है, इसी बात को बताया जाता है - घट आदि को जाननेवाले ज्ञान को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में अभी तक प्रत्यक्षपना सिद्ध नहीं हुआ है, अतः उससे मन की सिद्धि होना मानते हो तो इतरेतराश्रय दोष प्राता है, वह
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