Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
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ज्ञातमेव क्वचिज्ज्ञप्तिनिमित्तं तत्त्वादुभयवादिप्रसिद्धधूमादिवत्' इत्यनुमानप्रतीत्यात्रोभयथा कल्पने विरोधः । तथा 'ज्ञानज्ञानं ज्ञातमेव स्वविषये ज्ञप्तिनिमित्त ज्ञानत्वादर्थज्ञानवत्' इत्यत्रापि सर्वथा विशेषाभावात् । यदि चाप्रत्यक्षेणाप्यनेनार्थज्ञानप्रत्यक्षता; तहीश्वरज्ञानेनात्मनोऽप्रत्यक्षेणाशेषविषयेण प्राणिमात्रस्याशेषार्थसाक्षात्करणं भवेत्, तथा चेश्वरेतरविभागाभावः । स्वज्ञानगृहीतमात्मनोऽध्यक्षमित्यप्यसङ्गतम् ; स्वसंविदितत्वाभावे स्वज्ञानत्वासिद्ध: । 'स्वस्मिन्समवेत स्वज्ञानम्' इत्यपि वार्तम् ; अपलाप होता है, मतलब -अर्थज्ञान तो ज्ञात रहकर प्रमिति को पैदा करे और उस ज्ञानका ज्ञान तो अज्ञात रहकर प्रमिति को पैदा करे ऐसा प्रतीत नहीं होता है ।
जिस प्रकार आप मानते हैं कि ज्ञान के कारणस्वरूप माने गये चक्षु आदि विवाद में आये हुए पदार्थ अज्ञात रहकर अपने विषयभूत वस्तुप्रों में ज्ञप्ति पैदा करते हैं क्योंकि वे चक्षु आदि स्वरूप ही है । जैसे-हमारी चक्षु आदि इन्द्रियां अज्ञात हैं तो भी रूपादिकों को जानती हैं, तथा अन्य कोई ज्ञान के कारण लिंगादिक ऐसे हैं कि वे ज्ञात होकर ही स्वविषय में ज्ञप्ति को पैदा करते हैं, क्योंकि वे कारण इसी प्रकार के हैं, जैसे-वादी प्रतिवादी के यहां माने गये धूम आदि लिंग हैं, वे ज्ञात होते हैं तभी अनुमानादि ज्ञानों को पैदा करते हैं। इस अनुमान ज्ञान से सिद्ध होता है कि दोनों प्रकार से-अज्ञात और ज्ञात प्रकार से एक ही लिंग आदि में ज्ञान को पैदा करने का स्वभाव नहीं है एक ही स्वभाव है, अर्थात् चक्षु प्रादिरूप कारण अज्ञात होकर ज्ञानके जनक हैं और धूम आदि लिंग ज्ञात होकर ज्ञानके जनक हैं । जैसी यह लिंग और चक्षु आदि के विषय में व्यवस्था है वैसी ही अर्थज्ञान के ग्राहक ज्ञान में बात है, अर्थात् अर्थ ज्ञान को जाननेवाला ज्ञान भो ज्ञात होकर ही अपना विषय जो अर्थज्ञान है उसमें ज्ञप्ति को पैदा करता है, क्योंकि वह ज्ञान है । जैसे कि अर्थज्ञान ज्ञात होकर अपना विषय जो अर्थ है उसको जानता है । इस प्रकार अनुमान से सिद्ध होता है । आपके और हमारे उन अनुमानों में कोई विशेषता नहीं है । दोनों समानरूप से सिद्ध होते हैं।
यदि आप नैयायिकादि इस द्वितीयज्ञान को अप्रत्यक्ष रहकर ही अर्थज्ञान को प्रत्यक्ष करनेवाला मानते हैं तो बड़ी भारी आपत्ति आती है, इसी को बताते हैं-ज्ञान अपने से अप्रत्यक्ष रहकर अर्थात् अस्वसंविदित होकर यदि वस्तुको जानता है तो ईश्वर के सम्पूर्ण विषयों को जाननेवाले ज्ञानके द्वारा सारे ही विश्व के प्राणी संपूर्ण पदार्थों को साक्षात् जान लेंगे । फिर ईश्वर और अनीश्वर अर्थात् सवज्ञ और असर्वज्ञपने का विभाग ही समाप्त हो जावेगा ।
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